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________________ 108... . जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा वायु के थपेड़ों को समभाव से सहन करते हैं । सांकेतिक रूप से इस मुद्रा का प्रयोग भी निःस्वार्थ वृत्ति को जन्म देता है, शरीर एवं मन को समत्व योग की साधना के अनुकूल बनाता है तथा पीड़ित, त्रस्त एवं उग्रस्वभावी प्राणियों के प्रति मैत्री, दया और मध्यस्थ भाव जागृत करता है। वृक्ष के सर्वाधिक महत्त्व का कारण यह भी कहा जा सकता है कि वह अविकसित बीज को विकसित करता है, परमाणु को पूर्णता देता है । वृक्ष मुद्रा का अभ्यास भी प्रतीक रूप से संकुचित वृत्तियों का त्याग कर हृदयागत शुभ भावों (भावनाओं) को विस्तार देने का सूचक है । इस तरह वृक्ष मुद्रा के पीछे कई सार्थक प्रयोजन स्पष्ट होते हैं। विधि " "ऊर्ध्वदंडौ करो कृत्वा पद्मवत् करशाखाः प्रसारयेदिति वृक्षमुद्रा । दोनों हाथों को सीधा खड़ा करके, अंगुलियों को कमल की पंखुड़ियों के समान प्रसारित करने पर वृक्ष मुद्रा बनती है। सुपरिणाम • शारीरिक दृष्टि से यह मुद्रा आँख एवं गले सम्बन्धी बीमारियों में लाभ पहुँचाती है। इस मुद्रा से वायु तत्त्व संतुलित रहता है तथा तज्जनित रोगों का उपशमन होता है। वाणी माधुर्य युक्त बनती है । मनोमस्तिष्क के केन्द्र गतिशील बनते हैं। यह मुद्रा गला, मुँह, कण्ठ, कंधा आदि की समस्याओं का निवारण करने तथा एलर्जी, दमा, हृदय सम्बन्धी समस्याओं का शमन करने में विशेष उपयोगी है। • इस मुद्रा के द्वारा शरीरस्थ वायु तत्त्व संतुलित रहता है। यह रक्त संचरण प्रणाली को नियंत्रित रखती है तथा हृदय, फेफड़ें, भुजाओं आदि से सम्बन्धित रोगों का निवारण करती है । यह मुद्रा थायमस, थायरॉइड एवं पेराथायरॉइड ग्रंथियों के स्राव को संतुलित करते हुए साधक को जागरूक बनाती है । शरीर का तापमान, नाड़ी गति, मासिक धर्म आदि से सम्बन्धित समस्याओं का भी निवारण करती है। • आध्यात्मिक दृष्टि से इस मुद्रा का अभ्यास साधक में निष्काम कर्म की भावना को बढ़ाता है। जीवन में आगत उतार-चढ़ाव से लड़ने की क्षमता का
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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