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________________ विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप... ...105 होता है। गैस सम्बन्धित बीमारियों का उन्मूलन होता है। इससे आज्ञा एवं विशुद्धि चक्र यथोचित रूप से कार्य करते हैं। ____ इस मुद्राभ्यास से ब्रेनट्यूमर, कोमा, मिरगी, सिरदर्द, अनिद्रा, गले, मुँह आदि की समस्याओं एवं थायरॉइड आदि में लाभ मिलता है। यह मुद्रा आकाश एवं वायु तत्त्व को संतुलित करते हुए रक्त संचरण, श्वसन आदि को नियमित करती है। • भावनात्मक स्तर पर अभ्यासी साधक अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्त शक्ति को प्राप्त कर सकता है। यदि इस मुद्रा को त्रियोग पूर्वक किया जाए तो आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह इन चारों संज्ञाओं पर विजय प्राप्त होती है। इससे आज्ञा एवं विशुद्धि चक्र की ऊर्जा उत्तम कार्यों के रूप में प्रवाहित होती है। विशेष • यह मुद्रा बनाते समय परशु शस्त्र जैसा आकार निर्मित होता है इस कारण इसे परशु मुद्रा कहते हैं। • एक्यूप्रेशर प्रणाली के अनुसार परशु मुद्रा से बड़ी आंत सम्बन्धी ऊर्जा संतुलित रहती है। इस मुद्रा के प्रभाव से मानसिक शान्ति का प्रादुर्भाव होता है तथा रात्रि का अंधापन, कमर दर्द, कंधे का दर्द, गले की सूजन, तेज बुखार आदि में आराम मिलता है। पीयूष, थायरॉइड एवं पेराथारॉइड ग्रंथि के स्राव को संतुलित करते हुए शरीर के तापमान, त्वचा, बाल, नाड़ी गति, मासिक धर्म आदि को नियमित करती है तथा कैल्शियम, आयोडीन, कोलेस्ट्रोल आदि को संतुलित रखती है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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