SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......81 इन अर्थों के अभिप्रायानुसार कहा जा सकता है कि वरद मुद्रा देवीदेवताओं के समक्ष वरदान याचना के रूप में की जाती है। सामान्यतया अतिथि के रूप में आमन्त्रित देवताओं की पूजा-अर्चना सम्पन्न करने के पश्चात यह मुद्रा दिखाते हुए सांकेतिक रूप से इस तरह के भाव अभिव्यक्त किए जाते हैं कि आप सदैव कृपा बनाये रखें ताकि हम कल्याणकारी मार्ग का अनुसरण कर सकें, ऐसा इच्छित वर दें जिससे जीवन में आनन्द-मंगल होता रहे। इस प्रकार वरद मुद्रा आशीर्वाद प्राप्ति की कामना से की जाती है। विधि "दक्षिणहस्तमुत्तानं विधायाधाःकरशाखाः प्रसारयेदिति वरदमुद्रा।" दाहिने हाथ को सीधा खड़ा करते हुए अंगुलियों को आधा झुकाकर उन्हें प्रसारित करना वरद मुद्रा है। सुपरिणाम • शारीरिक दृष्टि से यह मुद्रा अनियन्त्रित ऊर्जा को नियन्त्रित करती है। हृदय रोग एवं तत्सम्बन्धी दोषों को दूर करने में सहयोग करती है। अस्थियों को मजबूत बनाती है। कर्ण से संबंधित विकारों में लाभ देती है। सुनने की शक्ति तीव्र करती है। सभी ग्रन्थियों एवं अवयवों को सन्तुलित रखती है तथा उनके आवश्यक कार्यों को सम्पादित करवाती है। • मानसिक दृष्टि से चैतन्य केन्द्र को स्थिर करती है। इससे निर्णायक एवं नेतृत्व क्षमता का विकास होता है। • आध्यात्मिक दृष्टि से मानवीय भावनाओं जैसे परोपकार, निःस्वार्थ प्रवृत्ति, परदुःखकातरता, प्रेम, करुणा, मैत्री आदि का अभ्युदय होता है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy