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________________ विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......77 आभ्यन्तर दृष्टि से स्वयं की चंचल वृत्तियों को नियन्त्रित करते हुए मन, वचन, काया की दुश्चेष्टाओं का निरोध करना। ___यहाँ दोनों अर्थ उपयुक्त प्रतीत होते हैं। तदनुसार अंकुश मुद्रा मनो संकल्पना पूर्वक बाधक तत्त्वों पर नियंत्रण प्राप्त करने अथवा दुष्ट शक्तियों को निरस्त करने के प्रयोजन से की जाती है। विधि "बद्धमुष्टेर्वामहस्तस्य तर्जनी प्रसार्य किंचिदाकुंचयेत् अंकुश मुद्रा।" बाएँ हाथ को मुट्ठी रूप में बाँधे। फिर तर्जनी को प्रसारित करते हुए किंचित झुकाने पर अंकुश मुद्रा बनती है। सुपरिणाम • शारीरिक स्तर पर यह मुद्रा नेत्र ज्योति को तेज करती है। आकाश तत्त्व की कमी से होने वाले रोगों में लाभ पहुँचाती है। थायरॉइड ग्रंथि के स्राव को संतुलित करती है। इस मुद्रा के नियमित प्रयोग से पाचन शक्ति का विकास होता है, जठराग्नि प्रदीप्त होती है और अग्नाशय सशक्त बनता है। यह वायुजनित बीमारियों का शमन कर शरीर को उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करती है। • भावनात्मक स्तर पर यह मुद्रा मन को नियन्त्रित करती है, निराशाजन्य एवं कुंठित मानसिकता को समाप्त करती है और अपूर्व उत्साह का सर्जन करती है। • आध्यात्मिक स्तर पर इन्द्रियों की भाग-दौड़ कम करती है। मूलाधार चक्र में स्थित कुण्डलिनी की वक्रता को दूर कर उसे सहस्रार तक पहुँचाती है। यह मुद्रा अभ्यास साधक में प्रत्याहार शक्ति को भी बढ़ाती है। विशेष • एक्यूप्रेशर चिकित्सकों ने तर्जनी अंगुली में मेरुदण्ड का स्थान माना है। इस मुद्रा में तर्जनी पर दाब पड़ने से मेरुदण्ड के विकार दूर होकर वह पुष्ट होता है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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