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________________ विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......69 कषायों से मन दूषित न हो। इस तरह मुद्रा के माध्यम से बाह्य शरीर और आभ्यन्तर आत्मा को निर्मल एवं सुरक्षित रख सकते हैं। इस तरह अवगुण्ठन मुद्रा के द्वारा शरीर एवं चेतन मन को बाह्य प्रभावों से अप्रभावित रखा जाता है। विधि "शिरोदेशमारभ्याप्रपदं पार्वाभ्यां तर्जन्योभ्रंमणमवगुंठन मुद्रा।" मस्तक के मूल भाग (शिखास्थान) से लेकर पैरों तक शरीर के दोनों पार्यों में तर्जनी अंगुली का परिभ्रमण करवाना अवगुंठन मुद्रा है। सुपरिणाम • अवगुण्ठन मुद्रा को धारण करने से मणिपूर, स्वाधिष्ठान एवं मूलाधार चक्र संतुलित रहते हैं इससे शारीरिक स्तर पर 72000 नाड़ियों की शुद्धि होती है, शरीरतन्त्र सशक्त बनते हैं और उदर सम्बन्धी अवयव शक्तिशाली बनते हैं। शरीरस्थ विकार जैसे- मुँह आदि से दुर्गन्ध आना, पाचन समस्याएँ, बुखार, फुन्सी, लीवर, उदर, मांसपेशी आदि की समस्याएँ, अल्सर, वायु विकार, बवासीर, नपुंसकता, गुर्दे की समस्या आदि में इस मुद्रा का प्रयोग करने से लाभ होता है। ___ अग्नि, जल एवं पृथ्वी तत्त्वों में संतुलन करते हुए यह मुद्रा पाचन, प्रजनन एवं विसर्जन तन्त्र के कार्यों का नियमन करती है। एड्रिनल ग्रंथि के स्राव का संतुलन करते हुए यह मुद्रा व्यक्ति को साहसी, निर्भयी, आशावादी, सहनशील बनाती है। रोगों की प्रतिकारक शक्ति में वृद्धि करती है, बच्चों के सकारात्मक विकास में सहायक बनती है और हृदयजनित रोगों में लाभदायी सिद्ध होती है। • मानसिक स्तर पर इससे उत्साह में वृद्धि होती है तथा निर्णय लेने की शक्ति का विकास होता है। • आध्यात्मिक स्तर पर चेतना में उत्पन्न विक्षोभों से लड़ने की शक्ति जागृत होती है। ध्यान साधना के क्षेत्र में उत्तरोत्तर प्रगति होती है। विशेष • अवगण्ठन रक्षा कवच निर्माण की मद्रा है। इसके माध्यम से भौतिक शरीर एवं आध्यात्मिक शक्तियों को सुरक्षित रखने का प्रयास किया जाता है। • यौगिक चक्र के अनुसार इस मुद्रा के द्वारा कर्ण, गला, मस्तिष्क एवं तालु सम्बन्धी तकलीफों का उत्तम उपचार हो सकता है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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