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________________ विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......67 अत्यन्त विस्तार वाली भूमि पर द्रव्य अर्पण (पुष्पादि अर्चन) कहाँ करें? अत: इष्ट देवताओं का स्थान निर्धारण एवं भ्रमित बुद्धि का स्थिरीकरण करने के उद्देश्य से निरोध मुद्रा की जाती है। विधि "मुष्टिप्रसृतया तर्जन्या देवतामभितः परिभ्रमणं निरोध मुद्रा।" बंधी हुई मुट्ठी से फैलायी गई तर्जनी अंगुली का देवता के चारों ओर परिभ्रमण करवाना निरोध मुद्रा है। सुपरिणाम • भौतिक दृष्टि से वायुविकार से जनित रोगों का शमन होता है। सम्पूर्ण शरीर का नाड़ीतन्त्र गतिशील बनता है। इस मुद्रा के द्वारा आकाश तत्त्व (मध्यमा अंगुली) की अभिवृद्धि होती है, जिससे आकाश तत्त्व की न्यूनता से होने वाले रोग ठीक होते हैं। हृदय सम्बन्धित रोगों जैसे रक्त चाप एन्जाइम पेन, अनियमित पल्स रेट में यह मुद्रा लाभदायक है। इस मुद्रा से कैल्शियम की पूर्ति होती है इसलिए हड्डियाँ मजबूत बनती हैं। • भावनात्मक दृष्टि से इस मुद्रा का अभ्यास चित्त की वृत्तियों को शान्त करने हेतु किया जाता है। इस मुद्रा से चित्तवृत्ति में सत्त्व गुण की वृद्धि होती है। साधक उच्च आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त करता है। अनाहत चक्र जागृत होने से दया, करुणा, क्षमा आदि गुण विकसित होते हैं। विशेष • एक्यूप्रेशर मेरिडियनोलोजी के अनुसार निरोध मुद्रा में तीन अंगुलियों के द्वारा हथेली के मध्य भाग पर एवं अंगुलियों पर दबाव पड़ता है, उससे बेहोश होना, गिर पड़ना, मिरगी का दौरा पड़ना, उच्च ज्वर आना, गाल में सूजन, अंगुलियों में सूजन, हाथ-पैरों में ऐंठन, पेट में गैस बनना आदि समस्याओं का निवारण होता है। • यह मुद्रा गले की घंटी एवं तालु उपचार के लिए अच्छा सहयोग करती है। यह बन्द गले को खोलती है तथा गले की घंटी सूजन को घटाती है। • कर्ण सम्बन्धी किसी भी तरह की बीमारी को इस मुद्रा से ठीक किया जा सकता है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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