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________________ विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......59 देवताओं को समुचित स्थान पर बिठाया जाता है जबकि संनिधानी मुद्रा के माध्यम से पूजादि अनुष्ठानों की पूर्णाहुति तक उन्हें उपस्थित रहने की प्रार्थना की जाती है। यदि आराधक शुद्ध मन से इस मुद्रा का प्रयोग करता है तो निःसन्देह बृहद अनुष्ठानों में देवी-देवताओं की समुपस्थिति रहती है। संनिधानी मुद्रा में द्वयांगुष्ठ खड़े रहते हैं, यह देवताओं की उपस्थिति के सूचक हैं तथा इससे उपस्थित रहने का संकेत भी दिया जाता है । उपनिषदों में अंगुष्ठ को परम तत्त्व का प्रतीक माना गया है। 'अंगुष्ठ मात्रः पुरुषः' कहकर अंगुष्ठ को सर्वशक्ति सम्पन्न बताया है। वैज्ञानिक दृष्टि से अंगुष्ठों का इस तरह खड़े रहना एकाग्रता का सूचक है। सम्यक्त्वी देवी-देवताओं की हाजरी से कोलाहल पूर्ण वातावरण शुभ में परिवर्तित हो जाता है और चित्त की स्थिरता सहज बढ़ जाती है। इस प्रकार संनिधानी मुद्रा प्रतिष्ठा आदि मंगल प्रसंगों में देवी-देवताओं का दीर्घ सान्निध्य प्राप्त करने के प्रयोजन से की जाती है। विधि " संलग्न मुष्ट्युच्छ्रितांगुष्ठौ करौ संनिधानी ।" दोनों हाथों की सम्मिलित मुट्ठियों में से अंगूठों को ऊपर करना संनिधानी मुद्रा है। सुपरिणाम • शारीरिक दृष्टि से यह मुद्रा ऋतु परिवर्तन से होने वाले रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ाती है। इसके अभ्यास से शरीर में गर्मी बढ़ती है जो हमारे पित्तकफ एवं चर्बी को जला डालती है। इस मुद्रा से शरीरस्थ पाँचों तत्त्व नियन्त्रित रहते हैं। इस मुद्रा के द्वारा मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्र सक्रिय बनते हैं। इससे जननांग सम्बन्धी रोगों को लाभ पहुँचता है तथा शरीर में कांति, तेज एवं ओज की वृद्धि होती है। • मानसिक दृष्टि से यह मुद्रा वैचारिक चंचलता समाप्त करती है तथा मानसिक बल को सुदृढ़ करती है। • आध्यात्मिक दृष्टि से जैसे कुंजी (चाबी) से दरवाजा खुलता है, उसी प्रकार इस मुद्रा से मोक्ष मार्ग की प्राप्ति होती है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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