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________________ 38... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा विशेष • इस मुद्रा को बनाते समय हथेलियों एवं अंगुलियों का आकार हृदय की भाँति प्रतीत होता है तथा दोनों हाथों को हृदय के सम्मुख रखा जाता है इसलिए इस मुद्रा को हृदय मुद्रा कहते हैं। । • हमारे शरीर में हृदय ही एक ऐसा तंत्र है जो दूषित रक्त को शुद्ध रक्त के रूप में परिवर्तित करता है। • हृदय ग्रहण शक्ति का स्रोत है। पूर्व जन्मों अथवा इस जन्म के संस्कारों के अनुरूप अच्छी-बुरी आदतों को ग्रहण करने का कार्य हृदय ही करता है। • एक्यूप्रेशर रिफ्लेक्सोलोजी के अनुसार यह मुद्रा हृदय, लीवर, पेन्क्रियाज, एड्रीनल, फेफड़ें सम्बन्धी रोगों में लाभदायी है। 4. शिरो मुद्रा शिर मस्तक को कहते हैं। मस्तिष्क मानव शरीर का सर्वोत्तम अंग है। यौगिक पुरुषों ने मस्तिष्क के अग्रभाग को शान्ति केन्द्र कहा है। यह चित्तशक्ति का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इसका सम्बन्ध भावधारा से है। सूक्ष्म शरीर से प्रवहमान भावधारा मस्तिष्क के इसी भाग में आकर मन के साथ जुड़ती है। यहीं हमारे भाव मनोभाव बनते हैं। इस प्रकार यह सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर का संगम बिन्दु है। ____ आयुर्वेद के आचार्यों ने इसे 'अधिपति मर्म स्थान' माना है। आधुनिक आयुर्विज्ञान में इसे अवचेतन मस्तिष्क (हायपोथेलेमस) कहा गया है। नाड़ी संस्थान और अन्तःस्रावी ग्रन्थि संस्थान का संगम भी यही होता है। हठयोग के अनुसार यह ब्रह्मरन्ध्र या सहस्रार चक्र का स्थान है। प्राचीन साहित्य में 'हृदय' का भाव संस्थान के रूप में जो उल्लेख किया गया है वह शांति केन्द्र या अवचेतन मस्तिष्क ही है। यही भावधारा के उद्गम का मूल स्रोत है। शिरोमुद्रा मस्तिष्क की सुरक्षा एवं हृदय परिवर्तन के प्रयोजन से की जाती है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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