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________________ अध्याय-5 उपसंहार मुद्रा मुनष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है और यह व्यक्ति के मन, वाणी और काया के द्वारा व्यक्त होती है। इसकी अभिव्यक्ति में शरीर प्रमुख रूप से कार्यशील रहता है तथा शरीर की क्रियाशीलता में जो भी भाव प्रदर्शित होता है वही मुद्रा है। ____ मुद्रा अर्थात एक्शन। हमारे शरीर के जितने भी एक्शन (कार्य) हैं सभी मुद्राएँ कही जा सकती हैं। मुद्रा एक ऐसा माध्यम है जिससे किसी भी तरह के भावों को मूक रूप में भी स्पष्ट कह सकते हैं। व्यक्ति के अपने भावों के अनुरूप हाथ, मुख, भृकुटि आदि के जो एक्शन होते हैं उनका आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है। लौकिक जगत में इस तरह के बहुत से उदाहरण देखे जा सकते हैं जैसे कोई हमें कुपित दृष्टि से देखें या क्रोध का भाव दिखायें तो हम भी उसी तरह का व्यवहार कर बैठते हैं, यदि कोई टेढ़ी नजरों से देखता है तो हमारे मनस पटल पर भी वैसे ही भाव उभर आते हैं, यदि हमें कोई देखकर प्रसन्न होता है तो हम भी प्रसन्नता से भर उठते हैं। इसी भाँति प्रेमिल दृष्टि, घृणित विचार, हास्यवार्ताएँ, अपनत्व अनुभूति, संवेदनशीलता आदि प्रवृत्तियों का चेतना स्तर पर यथावत प्रभाव पड़ता है। उच्चस्तरीय साधकों को हमारे विचार या हमारी क्रियाएँ प्रभावित न कर सकें, वह अलग बात है लेकिन सामान्य व्यक्ति हाव-भाव से तुरन्त प्रभावित होता है। __ कहा भी गया है “जैसे भाव वैसी मुद्रा, जैसी मुद्रा वैसे भाव" अर्थात शरीर की विभिन्न आकृतियों (मुद्राओं)का चेतन मन के साथ अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है। जिस तरह के भाव होते हैं उसी तरह की मुद्राएँ बन जाती है और जिस तरह की मुद्राएँ होती है उस तरह के भाव प्रकट हो जाते हैं। स्पष्ट है कि मानव की सहज प्रवृत्ति मुद्रा है। संस्कृत कोश के अनुसार मोहर, छाप, सिक्का (कोइन्स), पैसा (करन्सी)
SR No.006252
Book TitleMudra Prayog Ek Anusandhan Sanskriti Ke Aalok Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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