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________________ मुद्रा योग का ऐतिहासिक अनुसन्धान ...39 यह प्रमुख रूप से ध्यातव्य है कि भारतीय नृत्य केवल मनोरंजन या कला प्रदर्शन के लिए ही विकसित नहीं हुआ अपितु इसके पीछे एक मुख्य कारण, सुन्दर ढंग से भावों की अभिव्यक्ति करना भी रहा । देहांगों के संचालन से मुद्राओं का निर्माण होता है। नृत्यकला में हाथों एवं पैरों दोनों का संचालन होता है । जिस तरह हस्त संचालन से हस्त मुद्राएँ बनती है उसी तरह पाद संचालन से पैरों की मुद्राएँ बनती है। इन मुद्राओं में अपनी अभिव्यक्ति के संकेत होते हैं। पैर सम्बन्धी मुद्राओं के तीस प्रकार प्राप्त होते हैं जिनमें मुख्य दो हैं- भूमिचारी और आकाशचारी । भूमिचारी में पैरों को जमीन से स्पर्शित करवाते हुए विभिन्न मुद्राओं का प्रदर्शन किया जाता है। आकाशचारी में एक पैर पृथ्वी पर और दूसरा पैर आकाश में उठा हुआ रहता है। यह तो मुद्राओं के प्रारम्भिक स्वरूप एवं विकास की चर्चा हुई। यदि हम प्रचलित परम्पराओं एवं उपलब्ध ग्रन्थों के आधार पर यह विचार करते हैं कि मुद्रायोग किस क्रम से विकसित हुआ ? मुद्राओं के उद्भव में मुख्य कारण क्या रहे ? कहाँ- कितनी मुद्राओं का उल्लेख किया गया है ? तो मध्य युग से अब तक की इतिवृत्त जानकारी प्राप्त हो जाती है। जहाँ तक तान्त्रिक एवं वैदिक परम्परा का सवाल है वहाँ उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि मुद्रा कर्मकाण्ड के एक अंग के रूप में वैदिक काल से ही प्रतिष्ठित हो चुकी थी । वैदिक यज्ञों में मन्त्रोच्चारण के समय हाथों के विशिष्ट सन्निवेश के द्वारा उनके स्वर वर्णादि को सूचित किया जाता है। तान्त्रिक मुद्रा की अपेक्षा वैदिक मुद्रा की यह विशेषता है कि यह विशिष्ट ध्वनि की प्रतीक होती हैं जबकि तान्त्रिक मुद्राएँ विशिष्ट अर्थ अथवा यौगिक प्रक्रिया की प्रतिकृति होती है। ऋग्वैदिक मुद्राएँ केवल दाहिने हाथ से प्रदर्शित की जाती है। कुछ प्रमुख वैदिक मुद्राओं के नाम हैं- ह्रस्व मुद्रा, मूर्धन्य मुद्रा, घोष मुद्रा, दीर्घविसर्ग मुद्रा, उदात्त मुद्रा, उकार मुद्रा, अनुस्वार मुद्रा आदि। ये मुद्राएँ अपने-अपने नाम के अनुरूप विशिष्ट ध्वनि अथवा वर्णों को हस्ताकृति के द्वारा सूचित करती है जैसे कि उदात्त स्वर के लिए हाथ को ऊपर की ओर, अनुदात्त स्वर के लिए हाथ को नीचे की ओर, स्वरित स्वर के लिए हाथ को दायीं ओर एवं प्रचय के लिए बायीं ओर किया जाता है। वैदिक परम्परा मान्य स्मार्त्तविधि में मुद्रा का प्रयोग तान्त्रिक मुद्रा की भाँति
SR No.006252
Book TitleMudra Prayog Ek Anusandhan Sanskriti Ke Aalok Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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