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________________ प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधानों का ऐतिहासिक... ...589 के वश होकर जो “जिनप्रतिमा को स्थापित करता है, वह संसार-समुद्र में गिरता है।" प्रतिष्ठाचार्य और प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में कतिपय ज्ञातव्य बातों का ऊपर सार मात्र दिया है। आशा है कि प्रतिष्ठा करने और कराने वाले इस वर्णन से कुछ बोध लेंगे। परिवर्तन यह सृष्टि का नियम है। जैन दर्शन के अनुसार भी द्रव्य की पर्याय प्रति समय बदलती रहती है तथा व्यवहार में बदलाव यह मनुष्य का लक्षण है। यह परिवर्तन मात्र व्यक्ति या वस्तु में ही नहीं, अपितु काल क्रमानुसार नियम, सिद्धान्तों एवं संस्कृति में भी देखा जाता है। यदि प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधानों पर दृष्टि डालें तो आद्योपरान्त अनेक परिवर्तन परिलक्षित होते है। कुछ परिवर्तन बदलते हुए समय एवं आधुनिक विचारधारा के कारण आए तो कुछ क्षेत्रों एवं मन्दिरों की बढ़ती संख्या और योग्य आचार्यों की घटती संख्या के कारण क्षेत्र एवं काल के प्रभाव से भी, कई फेर-बदल प्रतिष्ठाकल्प कर्ताओं द्वारा किए गए तो वैचारिक मतभेद भी इसमें एक प्रमुख कारण बना। पर यदि पूर्ण रूपेण इनका परिशीलन करें तो यही ज्ञात होता है कि पूर्व काल में यह विधान जितने सहज, सुसाध्य एवं अल्पव्ययी होते थे वर्तमान में वे उतने ही कठिन एवं खर्चिले हो गए है। ऐसा नहीं है कि यह परिवर्तन सिर्फ धार्मिक विधि-विधानों में हुआ समाज के प्रत्येक क्षेत्र में चाहे शादी ब्याह हो या शिक्षा या फिर गृहस्थी संचालन सबमें यही देखा जाता है। इसका मुख्य कारण है बदलती हुई जीवनशैली एवं विचारधारा, पर यदि यथार्थ चिंतन करें तो भले ही वर्तमान में मंदिर-प्रतिष्ठाओं की संख्या बढ़ रही हो उनके खर्चे एवं महोत्सव भी बढ़ रहे हो तो भी उनकी भावनात्मक गुणवत्ता में दिन-प्रतिदिन कमी ही आ रही है जिसके कारण मन्दिरों का प्रभाव पूर्ववत नहीं देखा जाता। आज बढ़ती हुई स्वार्थ वृत्ति, आशातनाएँ, नियमों के प्रति लापरवाही तथा नाम एवं प्रशंसा की भूख ने प्रतिष्ठा के मौलिक स्वरूप को पूर्णत: बदल दिया है। यदि समाज शीघ्र ही इस विषय में सचेत नहीं होता है तो मन्दिरों एवं प्राचीन तीर्थों की प्रभावकता एवं सातिशयता में अपूर्णिय क्षति का सामना करना पड़ सकता है। परिवर्तन तो स्वीकार्य है परंतु मूल को ही भूल जाना तो सर्वथा अनुचित एवं अग्राह्य है।
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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