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________________ प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधानों का ऐतिहासिक... ...573 करते थे। उसके पश्चात कुछ अवधि तक कोई प्रतिष्ठाचार्य नन्द्यावर्त के ऊपर नूतन जिन बिम्ब की स्थापना करवाते थे और कोई प्रतिष्ठाचार्य नूतन जिन बिम्ब का मानसिक संकल्प पूर्वक चिन्तन कर साक्षात बिम्ब की स्थापना करने जितना संतोष कर लेते थे। कालान्तर में प्राय: यह प्रवृत्ति भी लुप्त हो गई। वर्तमान में नन्द्यावर्त पट्ट के ऊपर प्रतिमा की स्थापना अथवा उसका चिन्तन कुछ भी नहीं किया जाता है। अभी तो नन्द्यावर्त के चित्रित पट्ट का पूजन करके ‘नन्द्यावर्त्त की पूजा की' ऐसा सन्तोष कर लेते हैं। परन्तु जिन प्रतिमा की स्थापना करने का मौलिक विधान लुप्त हो गया है। 8. पूर्वकाल में प्रतिष्ठाचार्य, इन्द्र अथवा मुख्य स्नात्रकार और प्रतिष्ठा कार्यों में प्रमुख रूप से जुड़ने वाले गृहस्थ प्रतिष्ठा के दिन उपवास करते थे, परन्तु आजकल कोई भी उपवास करते हो ऐसा देखने में नहीं आता है। 9. पूर्व काल में जिन बिम्ब की प्रतिष्ठा के बाद तीसरे, पाँचवें या सातवें दिन शुभ मुहूर्त में जिन बिम्बों का कंकण मोचन विधिपूर्वक किया जाता था। उस समय बृहत्स्नात्र अथवा एक सौ आठ अभिषेक भी कंकण मोचन से पूर्व कर लेते थे। साथ ही कंकण मोचन करने से पहले जिन बलि और भूतबलिपूर्वक चैत्यवंदन कर कायोत्सर्ग करते थे, जिसमें अन्तिम कायोत्सर्ग प्रतिष्ठा देवता के विसर्जनार्थ किया जाता था। उसके बाद सौभाग्यमंत्र के न्यासपूर्वक कंकण उतारकर सौभाग्यवती स्त्री को अथवा स्वजनों को अर्पण करते थे। अनिवार्य संयोगों में कंकण मोचन की विधि प्रतिष्ठा के दिन भी कर ली जाती थी, परन्तु आज के कुछ विधिकारकों ने इस विधि को उपेक्षित कर दिया है। इससे कंकण मोचन की विधि का अनुष्ठानों में कोई स्थान भी नहीं रह गया है। 10. निर्वाण कलिका में प्रतिष्ठा मंडप को 'अधिवासना मंडप' कहा गया है। इसका अभिप्राय यह मालूम होता है कि अमुक मण्डप अधिवासना और प्रतिष्ठा संबंधी मुख्य क्रियाओं के सम्पादनार्थ ही बनाया जाता था, जिसमें प्रतिष्ठाचार्य, शिल्पी एवं चार स्नात्रकार ही जाते थे और वे ही आवश्यक कृत्य सम्पन्न करते-करवाते थे। प्रतिष्ठा मंडप के मुख्य द्वार के सामने दर्शकों के लिए पृथक सभामंडप बनाया जाता था। कालान्तर में चतुर्मुख प्रतिष्ठा मंडप का स्थान एक दिशागत त्रिद्वार और पंचद्वार युक्त मण्डप ने ले लिया। अब समचौरस के स्थान पर लम्बचौरस एवं मापविहीन मंडप बनने लगे हैं जिससे क्रियाकारक एवं दर्शनार्थी दोनों का एक मंडप में समावेश होने लगा है। इस वजह से वेदिका का
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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