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________________ 272... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन त्रिकालज्ञ हो, इसलिए हम सभी का सही मार्गदर्शन आपके द्वारा ही किया जा सकता है। प्रियंवदा दासी द्वारा करने योग्य भाव- इस जगत में परमात्मा के जन्म की प्रथम बधाई देने का पुण्य अत्यंत भाग्यशाली जीव को ही मिलता है। आज प्रियंवदा का किरदार निभाते हुए मुझे भी जगत वत्सल, तीन लोक के नाथ की जन्म बधाई देने का अवसर प्राप्त हो रहा है। महाराजा पुत्र जन्म की बधाई सुनकर मेरी सात पीढ़ियों का दारिद्रय तो दूर करेंगे ही परन्तु परमात्मा तो मेरे भव-भव के दारिद्रय को दूर करने वाले हैं। संसार में तो अनेक बार पुत्र जन्म की बधाई देकर परिवारजनों को प्रसन्न किया आज सम्पूर्ण लोक को आनंदित करने वाली सूचना देने से मैं स्वयं आनंदमय हो गई हैं। इस प्रकार के भावों से उस पात्र के पुण्य का अनुबंध होता है। कारण कि एक श्रेष्ठ जीव के निमित्त उसकी इच्छाएँ पूर्ण होती है। छप्पन दिक्कुमारियों द्वारा करने योग्य भाव- शाश्वत आचार के अनसार दसों दिशाओं से 4-8-2 आदि के क्रम से कुल 56 कुमारिकाएँ तीर्थङ्कर की माता का सूची कर्म निष्पन्न करती हैं। उस समय उन्हें यह विचार करना चाहिए कि इस आत्मा ने अनादिकाल से अनेकों के सूती कर्म किए और करवाए, परन्तु आज की क्रिया से जीवन सफल हुआ है। द्रव्यत: भले ही हमने माता एवं पुत्र का शुद्धिकरण किया है किन्तु भावतः हमने स्वयं की ही शद्धि की है। परमात्मा के बाह्य- मल को दूर करते हुए हमारे आभ्यन्तर राग-द्वेषादि के विकार क्षीण हो रहे हैं। इस प्रकार तीर्थङ्कर परमात्मा के पवित्र देह और निर्मल भावनाओं के साथ तुलनात्मक अध्ययन करें। धाय माता द्वारा करने योग्य भाव- कहते हैं कि धाय माता को बच्चों से आन्तरिक जुड़ाव नहीं होता, परन्तु जिसे परमात्मा की धाय माता बनने का अवसर प्राप्त हो जाये उसके भीतर किसी अन्य बालक के प्रति वात्सल्यादि की इच्छा शेष नहीं रहती। यह दृश्य दर्शाते समय धाय माता की तरह निर्लिप्त व निस्वार्थ जीवन जीने की प्रार्थना करनी चाहिए। परमात्मा का जीवन निस्पृहता आदि गुणों से युक्त होने के कारण कृत भावना सफल होती है। हरिणगमेषी देव द्वारा करने योग्य भाव- हे भगवन्! आपके जन्म, दीक्षा एवं अन्य समस्त कल्याणकों में देवों ने सर्वाधिक सहभाग लेकर अपने देवत्व को सफल बनाया है। हरिणगमेषी देव तो अत्यधिक धन्य है जिसे
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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