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________________ पंच कल्याणकों का प्रासंगिक अन्वेषण ... 263 गति के जीव प्रभु की देशना सुन सकते हैं। इस प्रकार केवलज्ञानोत्पत्ति के पश्चात तीर्थङ्कर पद के अपूर्व अतिशय प्रकट होते है। जिन धर्म की स्थापना, सामाजिक विकृतियों का उन्मूलन, पापाचार का निरोध इत्यादि सुकृत कर्म केवल ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात ही होते हैं। इस प्रकार अरिहंत परमात्मा के पांचो कल्याणकों में विश्वोपकार की अपेक्षा से केवलज्ञान कल्याणक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इस कल्याणक की उजमणी से तद्रूप पद की प्राप्ति होती है । केवलज्ञान कल्याणक कौन-कौन मनाते हैं? तीर्थङ्कर परमात्मा को केवलज्ञान होते ही अनेक अपूर्व घटनाएँ घटित होने लगती हैं। संसार के समस्त शोक संताप दूर हो जाते है तथा आनंद और प्रसन्नता की लहर छा जाती है। देवलोक में क्रमश: घण्टनाद, पुष्पवृष्टि, देव दुंदुभि और विविध शंख ध्वनियाँ होने लगती है । इन्द्र का आसन कंपायमान होता है और उसे केवलज्ञान होने की जानकारी प्राप्त हो जाती है। उस समय अनन्त ऋद्धिधारक इन्द्र सर्वप्रथम देवलोक से ही परमात्मा को वन्दन करते हैं। फिर सम्पूर्ण वैभव के साथ प्रभु की सेवा के लिए उपस्थित होते हैं और कुबेर को समवसरण की रचना करने का निवेदन करते हैं। उस अवसर पर करोड़ों देवी-देवता के साथ हजारों नर-नारी तथा पशु-पक्षी आदि भी हाजिर होते हैं। इस प्रकार ऊर्ध्व लोकवासी देव-देवी गण और मध्य लोकवासी मनुष्य एवं पशुपक्षी आदि मिलकर तीर्थङ्कर पुरुषों का केवलज्ञान कल्याणक मनाते हैं। केवलज्ञान कल्याणक की महिमा अरिहंत परमात्मा के जितने भी अतिशय प्रकट होते हैं वे केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद होते हैं। करोड़ों देवी-देवता नित्य उनकी सेवा में रहते हैं। वे जहाँ भी देशना देते हैं वहाँ समवसरण की रचना स्वयमेव हो जाती है । उस समवसरण का निर्माण देवताओं के द्वारा किया जाता है, जो कि देव - विमानों से भी अत्यन्त श्रेष्ठ, रत्न, स्वर्ण एवं रजत से निर्मित्त होता है। नरक गति के सिवाय शेष तीन गति के जीव वहाँ साक्षात रूप में परमात्मा की वाणी का श्रवण अपनी-अपनी भाषा में करते हैं। जहाँ भी परमात्मा होते हैं वहाँ से सौ योजन तक दुर्भिक्ष नहीं होता, कोई भी जीव आपस में लड़ाई, मार-पीट नहीं करते, सभी जीवों में वैर-विरोध समाप्त हो जाता है। तीर्थङ्कर भगवान के नख- केश नहीं बढ़ते, पलके नहीं झपकती और
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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