SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 230... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन निर्वाण के अधिकारी बनते हैं। तीर्थङ्कर अपनी इसी सामर्थ्य के साथ जगत के अन्य प्राणियों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते हैं। मानव जाति को मोक्ष का मार्ग बताकर उस पर अग्रसर होने की प्रेरणा और शक्ति भी प्रदान करते हैं। तीर्थङ्कर परम्परा जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक कालचक्र में अवसर्पिणी के सुषमा- दुःषमा नामक तीसरे काल के अन्त में और उत्सर्पिणी के दुःषम-सुषमा नामक चौथे काल के प्रारंभ में जब यह सृष्टि भोग युग से कर्म युग में प्रविष्ट होती है, तब क्रमशः चौबीस तीर्थङ्कर उत्पन्न होते हैं। यह परम्परा अनादिकालीन है। जैन आगम के अनुसार अतीत काल में अनन्त तीर्थङ्कर हो चुके हैं, वर्तमान में ऋषभादि चौबीस तीर्थङ्कर हुए हैं और भविष्य में भी चौबीस तीर्थङ्कर होंगे। वर्तमान कालिक चौबीस तीर्थङ्करों के नाम इस प्रकार हैं 1. ऋषभदेव 2. अजितनाथ 3. संभवनाथ 4. अभिनन्दन स्वामी 5. सुमतिनाथ 6. पद्मप्रभ 7. सुपार्श्वनाथ 8 चन्द्रप्रभ 9. पुष्पदन्त 10. शीतलनाथ, 11. श्रेयांसनाथ 12. वासुपूज्य 13. विमलनाथ 14. अनंतनाथ 15. धर्मनाथ 16. शांतिनाथ 17. कुन्थुनाथ 18. अरनाथ 19. मल्लिनाथ 20. मुनिसुव्रत स्वामी 21. नमिनाथ 22. नेमिनाथ 23. पार्श्वनाथ 24. महावीर । भूत और भविष्य कालिक तीर्थङ्करों के नाम इस प्रकार हैं भूतकालिक तीर्थङ्कर- 1. केवल ज्ञानी 2. निर्वाणी 3. सागर 4. महायश 5. विमल 6. सर्वाभूति 7. श्रीधर 8. दत्त 9. दामोदर 10. सुतेज 11. स्वामी 12. मुनिसुव्रत 13 सुमति 14 शिवगति 15 अस्ताग 16. नमीश्वर 17. अनिल 18. यशोधर 19. कृतार्थ 20. जिनेश्वर 21. शुद्धमति 22. शिवंकर 23. स्यन्दन 24. सम्प्रति। भविष्य कालिक तीर्थङ्कर- 1. पद्मनाम 2. 4. स्वयंप्रभ 5. सर्वानुभूति 6. देवश्रुत 7. उदय 8 10. शतकीर्ति 11. सुव्रत 12. अमम 13. निष्कषाय 14. निष्पुलाक 15. निर्मम 16. चित्रगुप्त 17. समाधि 18. संवर 19. यशोधर 20. विजय 21. मल्लि 22. देव 23. अनन्तवीर्य 24. भद्रंकर | शूरदेव 3. सुपार्श्व पेढाल 9. पोटिल भूत, वर्तमान और भविष्य कालिक सभी तीर्थङ्कर धर्म के मूल स्वरूप का समान रूप से प्ररुपण करते हैं, धर्म का मूलतत्त्व एक है । एक तीर्थङ्कर से दूसरे
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy