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________________ 172... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन शिल्पकार भी अपनी पूर्ण योग्यता को नवनिर्मित जिनालय, प्रतिमा एवं शिखर आदि में उड़ेल देता है। शिल्पकार को शीलनिष्ठ और सदाचारनिष्ठ होना चाहिए। उसे अपने मालिक के प्रति ईमानदारी, योजना के अनुरूप कार्यनिष्ठता, दायित्व निर्वहन की सदभावना आदि नियमों का प्रतिपालक होना चाहिए। यदि सूत्रधार चरित्रहीन हो तो उसके द्वारा निर्मित मूर्ति आदि पर भी वैसा ही दुष्प्रभाव पड़ता है जिससे मन्दिर का स्थायी प्रभाव मन्द या क्षीण हो जाता है। षोडशक प्रकरण के अनुसार जिन प्रतिमा गढ़ने वाला शिल्पी परस्त्रीगमन, मांसाहार, धूम्रपान, दारू आदि व्यसनों से मुक्त होना चाहिए। इस प्रकार शिल्पकार को अनेक गुणों से सम्पन्न होना चाहिए। मन्दिर निर्माता को भी इस संबंध में ध्यान देना चाहिए कि वह उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न शिल्पी की खोज कर उसी के निर्देशन में मूर्तिघड़न आदि का कार्यपूर्ण करवाये। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि सूत्रधार को शिल्पी, शिल्पकार, शिल्पाचार्य, शिल्प शास्त्रज्ञ आदि भी कहते हैं। ये सभी समान अर्थवाची शब्द हैं। शिल्पकार के प्रति कर्तव्य ऊपर वर्णित निर्देशानुसार योग्य शिल्पी की प्राप्ति हो जाये तभी मन्दिर निर्माण से सम्बन्धित कार्यों का प्रारम्भ करें। • जिनालय का निर्माण प्रारम्भ करने से पूर्व मन्दिर निर्माता सर्वप्रथम भोजन, पत्र, पुष्प, फल आदि द्वारा शिल्पकार का शुभ मुहूर्त में सम्मान करें। • फिर अपनी शक्ति के अनुसार प्रशस्त अध्यवसायपूर्वक उसे उचित मूल्य दें। • तदनन्तर यदि प्रतिमा का निर्माण करवाना हो तो शिल्पी के सामने मूलनायक तीर्थंकर भगवान का हृदय स्पर्शी जीवन चरित्र तथा उनकी वीतरागता आदि गुण समृद्धि का कथन करें, जिससे शिल्पी के हृदय में प्रभु के प्रति अहोभाव उत्पन्न हो और जिन प्रतिमा में उस तरह के निर्विकार, प्रसन्न एवं सौम्य मुखाकृति जैसे भाव उड़ेलने का प्रयत्न कर सके। • प्रासादमंडन के अनुसार मन्दिर निर्माण एवं मूर्तिघड़न आदि का कार्य पूर्ण हो जाने पर निम्न रीति से शिल्पकार का सम्मान करें।
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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