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________________ जिनमन्दिर निर्माण की शास्त्रोक्त विधि ...115 जिनालय की अन्य रचनाएँ ___ मन्दिर के परिसर में तीर्थ यात्रियों के लिए आवास स्थल, भोजनालय, रसोईघर आदि का निर्माण भी किया जाता है। साधुओं एवं साधकों के लिए उपाश्रय, साधना कक्ष आदि का निर्माण भी होता है। धार्मिक शिक्षण के लिए पाठशाला, लायब्रेरी आदि की स्थापना की जाती है। वाहन, रथ आदि रखने के लिए भी समुचित स्थान की आवश्यकता होती है। इस प्रकार प्रासाद के परिसर के विभिन्न भागों में अनेक योजनाएँ साकार की जाती हैं। प्रासाद मंडन में इन निर्माणों के लिए निम्न दिशाओं का निर्देश किया गया है-45 प्रासाद भाग की दिशा निर्माण पश्चिमी भाग में रथशाला उत्तरी भाग में रथ का प्रवेश द्वार उत्तर-दक्षिण-आग्नेय-पश्चिम में साधुओं के लिए उपाश्रय वायव्य कोण में धान्य को सुरक्षित रखने का भंडार आग्नेय कोण में रसोई घर ईशान कोण में पुष्पगृह एवं पूजोपकरण स्थान नैऋत्य कोण में आयुध कक्ष पश्चिमी भाग में जलाशय पूर्व भाग में विद्यालय एवं व्याख्यान कक्ष रिक्त स्थान का महत्त्व मन्दिर निर्माण करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि मन्दिर एवं परकोटा के मध्य पर्याप्त खुली जगह छोड़ी जाये। यह जगह पूर्व और उत्तर दिशा में अधिक छोड़ी जाये तथा दक्षिण और पश्चिम में कम। किसी भी स्थिति में दक्षिण की अपेक्षा उत्तर में दुगुनी भूमि रिक्त रखना चाहिए। इसी प्रकार पश्चिम की अपेक्षा पूर्व में कम से कम दुगुनी भूमि रिक्त रखना चाहिए। ऐसा करने से शुभ फल की प्राप्ति होती है। ___यदि मन्दिर के दक्षिण और पश्चिम भाग में रिक्त स्थान अधिक हो तो विद्वानों के परामर्श से वहाँ कोई निर्माण कार्य करवा लेना चाहिए, इससे दोष
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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