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________________ 88... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन निरन्तर कष्ट एवं वैमनस्य बना रहता है। 7. जहाँ दीर्घकाल से विधवा, परित्यक्ता या नपुंसक रहते हों अथवा जहाँ लम्बे समय से रूदन हो रहा हो वहाँ मन्दिर बनाने से प्रगति अवरुद्ध हो जाती है। 8. कंटीले वृक्षों से निरन्तर बिंधी रहने वाली भूमि पर किया गया मन्दिर निर्माण क्लेश कारक और शत्रुवर्धक होता है । 9. तापसों के आश्रय वाली उजाड़ हुई भूमि पर मन्दिर निर्माण से गाँव उजड़ जाते हैं। 10. शीलहरण आदि पापों से दूषित भूमि पर मन्दिर निर्माण करने से शीलभंग होने का भय रहता है। 11. जिस भूमि पर लम्बे समय तक गर्दभ, शूकर, कौए रहते हों वह मन्दिर के लिए अत्यन्त क्लेशदायी होती है। 12. जहाँ कौए-कबूतर निरन्तर रहते हों वह भूमि जिनालय के लिए रोग, शोक, भय, मृत्यु आदि कष्टों का कारण बनती है। 13. गिद्ध पक्षियों के निवास युक्त भूमि पर मन्दिर निर्माण से धन हानि और मृत्यु सम्भावना रहती है। 14. टेढ़ी-मेढ़ी, रेतीली एवं विकट भूमि पर जिनालय का निर्माण करने से विद्याहीन पुत्रों की प्राप्ति होती है। 15. नुकीली एवं पथरीली भूमि पर मन्दिर निर्माण से दरिद्रता बढ़ती है। 16. भूमि के स्पर्श से यदि हाथ मलिन हो तथा धोने पर भी साफ न हो तो वह भूमि जिनालय निर्माण के लिए अशुभ है। 10 शुभाशुभ लक्षणवाली भूमियों के प्रकार एवं उसके फल शिल्प सम्बन्धी ग्रन्थों में आकार की अपेक्षा शुभ-अशुभ भूमि के अनेक प्रकार बताये गये हैं तथा उन भूमियों का फलादेश भी कहा गया है। वह विवरण संक्षेप में निम्न प्रकार है 1. वर्गाकार भूमि - जिसके चारों कोने बराबर हो वह वर्गाकार भूमि कहलाती है। इसे प. सुमंगला भूमि कहते हैं। ऐसी भूमि पर जिनालय निर्मित करने से सुख, शांति और समृद्धि की प्राप्ति होती है। उ. वर्गाकार भूमि द. पू.
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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