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________________ जिनालय आदि का मनोवैज्ञानिक एवं प्रासंगिक स्वरूप ...67 आशय यह है कि व्यवहार नय से रत्नादि श्रेष्ठ धातुओं की प्रतिमा विशिष्ट फल देती है तथा निश्चय नय से व्यक्ति के उत्कृष्ट परिणाम लाभदायी होते हैं। अतएव श्रावक को व्यवहार धर्म का पालन करते हुए स्वशक्ति के अनुरूप उत्तम प्रतिमा बनवानी चाहिए तथा निश्चय धर्म के अनुसार भावों में उत्तरोत्तर वृद्धि करनी चाहिए। यहाँ जिन बिम्बादि के निर्माण फल की चर्चा को पढ़कर कुछ लोगों में यह प्रश्न हो सकता है कि जिनबिम्ब निर्माण से स्वर्गादि सांसारिक सुखों की भी प्राप्ति होती है जो भव परम्परा की वृद्धि का कारण है तब यह सुकृत क्यों किया जाये? - इसका समाधान करते हुए षोडशक प्रकरण में बताया गया है कि जिस प्रकार खेती करने का मुख्य प्रयोजन धान्य की प्राप्ति है किन्तु धान्य के साथसाथ घास-पलाल आदि सहज प्राप्त हो जाते हैं उसी प्रकार बिंब निर्माण का मुख्य फल मोक्ष है फिर भी घास-फूस की तरह स्वर्गादि सुख स्वयं उपलब्ध हो जाते हैं। यह आनुषांगिक फल है किन्तु एक सीमा तक स्वर्गादि पुण्य फल भी मोक्ष प्राप्ति में पारम्परिक कारण बनते हैं। अतएव जिनबिम्ब या जिनालय निर्माण करवाते समय मोक्ष प्राप्ति का ही लक्ष्य होना चाहिए। एक प्रतिमा के निर्माण से अनेक प्रतिमा बनवाने का लाभ कैसे? जिन शासन के प्रत्येक अनुष्ठान में भावोल्लास की प्रधानता है। इस सिद्धान्त को पुष्ट करते हुए पूर्वाचार्यों ने कहा है . यावन्तः परितोषाः कारयितुस्तत्समुद्भवाः केचित् । तबिम्ब कारणानीह, तस्य तावन्ति तत्त्वेन।। जिनबिम्ब निर्माणकर्ता को जिनबिम्ब से जितनी मात्रा में आनन्द उत्पन्न होता है उसे परमार्थतः उतने ही परिमाण में जिन प्रतिमा बनवाने का लाभ मिलता है। इसका आशय यह है कि आन्तरिक उत्साह के परिमाण में जिनबिम्ब तैयार करवाने से जितना फल प्राप्त होता है उतना फल उस श्रावक को मिलता है।10। इस प्रसंग में प्रश्न होता है कि प्रतिमा के द्वारा आनन्द कैसे उत्पन्न हो? इसका खुलासा करते हुए व्याख्याकार गणि यशोविजयजी ने समझाया है कि प्रतिमा निर्माण करवाने वाला श्रावक कदाचित शिल्पीकार के समीप पहुँच जाये और वहाँ घड़न की जा रही प्रतिमा की प्रसन्न मुख मुद्रा, आरोह-अवरोह आदि
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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