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________________ सम्पादकीय भारत देश संस्कृति, कलाकृति एवं प्रकृति का अद्वितीय संगठन है। यहाँ की प्रत्येक संरचना में इसका साक्षात दर्शन होता है। यहाँ के मन्दिरों की दिव्य छटा इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। सिंधु घाटी की प्राचीनतम सभ्यता हो अथवा आज की आधुनिक Multistore buildings | हर गली के नुक्कड़ और Well designed society में कोई न कोई प्रार्थना स्थल अवश्य दिखाई पड़ेगा। इन मंदिरों एवं प्रार्थना स्थलों के समक्ष व्यक्ति स्वयमेव ही झुक जाता है। जिनालय एवं परमात्मा को प्रभावशाली बनाने का रहस्यपूर्ण विधान है प्रतिष्ठा। सामान्यतः देव मूर्ति को एक स्थान पर स्थापित करना प्रतिष्ठा कहलाता है परंतु जैनाचार्यों ने विभिन्न परिप्रेक्ष्य में प्रतिष्ठा को परिभाषित किया है। आचार्य हरिभद्रसरि षोडशक प्रकरण में प्रतिष्ठा का अर्थ विन्यास करते हए कहते हैं- देवता के उद्देश्य से आगमोक्त विधि पूर्वक आत्मा में ही परमात्म भावों की स्थापना करना प्रतिष्ठा है। इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि मूल रूप में प्रतिष्ठाकर्ता के विशिष्ट परिणामों की स्थापना करना ही प्रतिष्ठा है। बाह्य रूप से तो मन्दिर में मूर्ति की स्थापना होती है परंतु आध्यात्मिक स्तर पर मानवीय गुणों का जागरण एवं वीतरागत्व आदि स्वाभाविक गुणों की प्रतिष्ठा होती है। प्रतिष्ठा एक आगमिक विधान है। आगम अग्नि रूप होते हैं। अग्नि का संयोग पाकर ही धातु का मल दूर होता है वैसे ही आगमोक्त प्रक्रिया कर्ममल को दूर करती है। वर्तमान में प्रतिष्ठा का अभिप्राय जिनबिम्ब स्थापना एवं जिनालय को पूर्णता देने वाला महा महोत्सव किया जाता है। पूजन-महापूजन, साधर्मिक भक्ति, लोगों को भीड़ और प्रतिष्ठा की आवक आदि जितनी अधिक हो उसे उतनी ही सफल और श्रेष्ठ प्रतिष्ठा माना गया है। परन्तु शास्त्रोक्त उल्लेखों के अनुसार प्रतिष्ठाचार्य की साधना, आचरण पक्ष तथा प्रतिष्ठा करवाते समय ऊर्ध्वगामी शुभ भाव जितने उत्कृष्ट हो प्रतिष्ठा उतनी ही उत्तम मानी जाती है, किन्तु वर्तमान में यह विचारधारा प्रायः विलुप्त सी हो चुकी है।
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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