SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनालय आदि का मनोवैज्ञानिक एवं प्रासंगिक स्वरूप ...55 दलिक मांगलिक भावों से अधिक बलवान होते हैं, अतः उन प्रगाढ़ कर्मों के निवारण हेतु मंगल भी उतना ही प्रबल होना चाहिए। कदाचित कोई निकाचित अशुभ कर्म उदय में आ जाएँ तो वे भोगे बिना क्षय नहीं होते, ऐसी स्थिति में मंगल अनुष्ठान कर्मों के क्षय में कार्यकारी नहीं होता। इससे यह विदित होता है कि हमारे पुरुषार्थ में कमी होने के कारण अथवा अशुभ निकाचित के उदय के कारण मंगल अनुष्ठान कार्य नहीं कर सकता, परन्तु वह कार्य सिद्धि में सहायक अवश्य होता है अतः उसके प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करना किसी भी प्रकार से योग्य नहीं है । दूसरा तथ्य यह है कि निकाचित कर्म बहुत ही अल्प होते हैं और अनिकाचित ज्यादा। इसलिए मंगल के अनुवर्त्तन में लापरवाही और प्रमाद न करते हुए उत्कृष्ट मंगल के शुभ भाव रखने चाहिए, जिससे प्रगाढ़ अशुभ कर्मों का भी क्षय किया जा सके। तीसरा उल्लेखनीय यह है कि किया गया मंगल कभी निष्फल नहीं जाता। कदाच किसी निकाचित कर्म का उदय आ भी जाए तो भी मंगल अनुष्ठान निष्फल नहीं होते और यह विज्ञान सिद्ध भी है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है "Every action has an equal and opposite reaction" | यहाँ यह तथ्य ध्यातव्य है कि भले ही विघ्न नाश की अपेक्षा मंगल अकार्यकारी सिद्ध हो, परन्तु मंगल के दौरान की गई देव-गुरु-धर्म की आराधना पुण्य बन्ध और शुभ संस्कारों के उपार्जन में अवश्य हेतुभूत बनती हैं। इसी के साथ अन्य शुभ कर्म प्रकृतियों के बंधन में भी निमित्त बनती हैं। प्रश्न- शंका होती है कि आत्म शुद्धि हेतु किस प्रकार के चैत्यों में जाना चाहिए? क्योंकि जैन मतानुसार कई मन्दिरों के स्थल मिथ्यात्व के पोषक हैं अतः कल्याणकारी चैत्यों का स्वरूप जानना आवश्यक है। समा. चैत्यवन्दन कुलकवृत्ति (पृ. 74) के आधार पर जैन शासन में तीन प्रकार के चैत्य मुक्ति प्राप्त कराने वाले माने गये हैं- 1. आयतन 2. अनिश्राकृत और 3. विधि चैत्य | विस्तृत होता हो उसे मूल गुण - पंचमहाव्रत, 1. आय- जहाँ ज्ञान, दर्शनादि का लाभ, तनआयतन कहते हैं। आशय यह है कि जिस चैत्य में
SR No.006251
Book TitlePratishtha Vidhi Ka Maulik Vivechan Adhunik Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages752
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy