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________________ 346... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म.... कायदों के अनुसार सम्पूर्ण राशि सरकारी भंडारों में चली जाए इससे तो बेहतर यही होगा कि शास्त्र निर्देश अनुसार सुयोग्य क्षेत्रों में उसका उपयोग कर देना चाहिए। सर्वप्रथम तो जहाँ प्राचीन तीर्थों का जीर्णोद्धार कार्य प्रगति पर हो वहाँ उस द्रव्य का सद्व्यय करना चाहिए। तदनन्तर यदि किसी क्षेत्र में नूतन जिनालय बन रहा हो और वहाँ का संघ समर्थवान न हो तो उस जगह देवद्रव्य का उपयोग कर सकते हैं। यह ध्यातव्य है कि जहाँ भी देवद्रव्य की राशि भेंट दी जाए वहाँ उस जिनालय के देवद्रव्य का नाम आना चाहिए। ट्रस्टी या अधिकारियों का नाम देने पर देवद्रव्य भक्षण का दोष लगता हैं। देवद्रव्य का खर्च भी पूर्ण जागरूकता के साथ आवश्यकता अनुसार ही करना चाहिए। शंका- मन्दिर उपयोगी केशर - चंदन आदि की खरीदी एवं पुजारी आदि की पगार देवद्रव्य में से दे सकते हैं क्या? समाधान— देवद्रव्य का उपयोग मात्र जिनमन्दिर या जिनप्रतिमा हेतु करना चाहिए। पुजारी, केशर-चंदन आदि की व्यवस्था श्रावक वर्ग अपनी सुविधा के लिए करता है अतः श्रावकों को अपने व्यक्तिगत द्रव्य से ही इसकी व्यवस्था करनी चाहिए। सामर्थ्यशील श्रावकों को इस विषय में जागृत रहना चाहिए। यदि ऐसी व्यवस्था संभव नहीं हो तो साधारण द्रव्य से इनकी व्यवस्था करनी चाहिए । यदि अज्ञानतावश देवद्रव्य का प्रयोग किया हो तो गुरु भगवंतों से इसका प्रायश्चित्त लेना चाहिए। शंका- धर्म क्षेत्र का पैसा बैंक में ब्याज पर या शेयर खरीदने हेतु उपयोग में ले सकते हैं? समाधान- यह बात पूर्व में भी स्पष्ट कर चुके हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में देवद्रव्य का संचय हानिकारक सिद्ध हो सकता है । देवद्रव्य का संचय या वृद्धि करनी भी हो तो पूर्व निर्दिष्ट शास्त्रोक्त मार्ग अनुसार ही करना चाहिए । बैंक आदि में ब्याज पर रखने या शेयर खरीदने से शुभ कार्यों हेतु एकत्रित राशि का व्यय अशुभ कार्यों में होता है। बैंक का पैसा कत्लखाने, मुर्गी पालन केन्द्र (Paultry Farm). मछली पालन, शस्त्र निर्माण आदि कार्यों में भी दिया जाता है। यदि हमारा पैसा बैंक में हो तो हम भी इसके बराबर के भागीदार होते हैं। अतः इस प्रकार के तरीकों से मूल धन बढ़ाना श्रावकों के लिए कदापि औचित्यपूर्ण नहीं है अपितु जिन आज्ञा के विरुद्ध है। इस प्रकार धन वृद्धि करने
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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