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________________ जिन पूजा विधि की त्रैकालिक आवश्यकता एवं......271 प्रभाव से उनमें कई प्रकार के दोष आने की या उन्हें हानि पहुँचाने की संभावना रहती है। दूध-दही-घी आदि के द्वारा प्रतिमा की बाह्य वातावरण से रक्षा होती है। अभिषेक के द्वारा परमात्मा की वीतराग मुद्रा और भी अधिक देदिप्यमान हो उठती है। इन पाँचों द्रव्यों के गुण पूजक में संक्रमित होते हैं। पंचामृत में एक सकारात्मक शक्ति होती है जो वातावरण में भी विशिष्ट प्रभाव उत्पन्न करती है । इन सब द्रव्यों के मिश्रण से मिश्रित जल में भी एक विशिष्ट प्रकार का रासायनिक परिवर्तन आता है जो प्रतिमा को विशेष रूप से प्रभावित करता है। इस प्रकार प्रतिमा को वातावरण के दूषित परमाणुओं से बचाने, उसके तेज आदि में वर्धन करने तथा देवों का अनुकरण करने के उद्देश्य से स्वशक्ति अनुसार पंचामृत से अभिषेक करने की परम्परा है। जिनपूजा में विधि एवं क्रमिकता की आवश्यकता क्यों? विधि के पथ पर चलकर ही सदा कार्यसिद्धि होती है। छोटे से छोटा कार्य भी करना हो तो उसकी विधि का पालन किया जाता है, जिससे इच्छित परिणाम की प्राप्ति हो सके। एक प्याली चाय भी बनानी हो तो उसकी सम्पूर्ण विधि का ज्ञान आवश्यक है। मात्र चाय की पुड़िया लाने से चाय तैयार नहीं होती। चाय की पुड़िया के साथ शक्कर, दूध, पानी, गैस सिलेण्डर, चूल्हा, छननी, बरतन आदि सब कुछ होना आवश्यक है। एक भी द्रव्य का अभाव हो तो चाय नहीं बन सकती। सभी सामग्री सामने हो परन्तु चाय बनाने की विधि ज्ञात नहीं हो तो भी चाय नहीं बन सकती । चाय बनाने की विधि ज्ञात हो किन्तु उसका क्रमानुसार पालन नहीं किया जाए तो भी व्यवस्थित चाय नहीं बन सकती और यही नियम प्रत्येक कार्य हेतु लागू होता है । जिनपूजा एक विशिष्ट प्रकार की अद्भुत प्रक्रिया है । सिद्धि प्राप्त करने की अनुपम विधि है। जिस प्रकार संसार के सामान्य व्यवहार में विधि आवश्यक प्रतीत होती है। उसी प्रकार जैनाचार्यों ने जिनपूजा की भी विशिष्ट विधि क्रम का उल्लेख किया है। इस पूजा विधि के सम्यक अनुपालन के द्वारा अनेक उपलब्धियाँ हो सकती हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसके द्वारा विकास किया जा सकता है। दिव्य शक्तियों को जीवन में अनुप्राणित करने का Procedure जिनपूजा है। विधि में अव्यवस्था, क्रम उल्लंघन, मर्यादा खंडन आदि होने के कारण
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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