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________________ अध्याय-4 भावे भावना भाविए अध्यात्म जगत में भावों का महत्त्व सदाकाल से ही रहा है। शास्त्रकारों ने कहा है भावे भावना भाविए, भावे दीजे दान । भावे जिनवर पूजिए, भावे केवलज्ञान ।। भावों के आधार पर ही जीव निगोद से मोक्ष की यात्रा करता है। भावधारा के आधार पर ही प्रसन्नचंद्र राजर्षि का Promotion एवं Demotion हुआ। भाव जगत का परिशोधन करते-करते ही मरुदेवी, बाहुबली आदि को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। इसी कारण जैनाचार्यों ने भावों को अधिक प्रमुखता दी है। जिनपूजा में भी भावों का सर्वोच्च स्थान है। जिनपूजा के विविध प्रकार के भेदों को संक्षेप में द्रव्यपूजा और भावपूजा के अन्तर्गत ही समाविष्ट किया जा सकता है। योगिराज आनंदघनजी महाराज कहते हैंसत्तर भेद एकवीस प्रकारे, अष्टोत्तर शत भेदे रे। भावपूजा बहुविध निरधारी, दोहग दुरगति छेदे रे ।। दुर्भाग्य और दुर्गति का छेदन करते हुए जिनपूजा पुण्य का वर्धन एवं सद्गति का सृजन करती है। द्रव्यपूजा जहाँ द्रव्य परिणति है वहीं भावपूजा आत्मा की एकाग्रता है। भावपूजा द्रव्य जगत से ऊपर उठकर भाव जगत में उच्च उड़ान करवाते हुए जीव को लोकाग्र में सिद्धशिला तक ले जाती है। भाव पूजा के मननीय पहलू जिस पूजा में भावों की प्रधानता हो वह भावपूजा कहलाती है। द्रव्यपूजा के बाद भावपूजा का क्रम आता है। जिनस्तुति, चैत्यवंदन, स्तवन आदि को भावपूजा कहते हैं।2 पंचाशक प्रकरण में प्रत्याख्यान एवं चैत्यवंदन को भावपूजा माना है। द्रव्यपूजा का प्रयोजन जहाँ द्रव्यासक्ति को न्यून करना है वहीं प्रत्याख्यान, स्तुति, स्तवन आदि आत्मोत्थान की दृष्टि से किए जाते हैं। चैत्यवंदन सूत्रों के
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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