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________________ अष्ट प्रकारी पूजा का बहुपक्षीय अनुशीलन ... 167 हे राज राजेश्वर! यह चामर जैसे आपके चरणों में झुकता है एवं तुरंत उठता है वैसे ही आपके चरणों में झुककर मैं भी शीघ्र ही ऊर्ध्वगति को प्राप्त करूंगा। हे अखिलेश्वर! जिसने आपके समक्ष चामर लेकर नृत्य कर लिया उसे कर्मराज एवं मोहराज भी अपने आगे नचा नहीं सकते । हे नाथ! कर्मों के आगे मैं बहुत नाचा, अब मेरे जीव को स्थिर करो। दर्पण पूजा से निहारें निज का जिन रूप परमात्मा की दर्पण पूजा करते हुए हमें निम्न भाव करने चाहिए । हे निरंजन! अष्टमंगल में दर्पण को स्वयं मंगलरूप माना गया है। इस मंगलकारी दर्पण में देखा गया आपका मंगलमय प्रतिबिम्ब जीवन में मंगल रूप कार्य करता है। हे सर्वेश्वर ! जिस प्रकार इस दर्पण में आपका प्रतिबिम्ब परिलक्षित होता है, वैसे ही मेरे हृदय रूपी दर्पण में आपके प्रतिबिम्ब की स्थापना हो । हे प्राणेश्वर! दर्पण में जो वस्तु जैसी होती है वैसी दिखाई देती है। इसी तरह आप भी एक स्वच्छ निर्मल दर्पण के समान हैं एवं आपके समक्ष खड़े होते ही मुझे मेरा कर्मों से लिप्त स्वरूप दिखाई देता है। हे भगवन्! आपकी कृपा से मैं अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर सकता हूँ। हे परमात्मन्! आप मेरे हृदय सिंहासन पर शाश्वत रूप में विराजमान होवो इसी प्रयोजन से मैं आपकी दर्पण पूजा करता हूँ । वस्त्र पूजा से तोड़ें आसक्ति का बंधन वीतराग परमात्मा की पुष्पपूजा करने के बाद दो वस्त्रों से परमात्मा की वस्त्र पूजा का उल्लेख सत्रह भेदी पूजा आदि में आता है । देवेन्द्रों एवं नरेन्द्रों द्वारा पूजित देवाधिदेव की वस्त्र एवं अलंकार आदि से पूजा करते हु निम्न भावना करनी चाहिए हे देवाधिदेव! जन्माभिषेक के समय देवों द्वारा बहुमूल्य वस्त्राभूषण अर्पण कर आपकी भक्ति की जाती है परंतु आपके मन में इन बाह्य वस्तुओं के प्रति कोई आकर्षण उत्पन्न नहीं होता। युवराज अवस्था में भी आपका मन कभी राजभोग आदि में आसक्त नहीं हुआ।
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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