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________________ 164... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... हे परमात्मन्! आपके समक्ष इस द्रव्य दीपक को मैं प्रकट कर रहा हूँ, आप मेरे भीतर में भावदीपक को प्रकट करें ऐसी मेरी आन्तरिक प्रार्थना है। जिससे अनंतकाल से प्रारंभ हुई मेरी संसार यात्रा को अब विराम मिल सके और मेरा मुक्तिधाम में निवास हो सके। अक्षत पूजा से प्रकटे आत्मा का अक्षय स्वरूप विश्व वंद्य अरिहंत परमात्मा की अक्षत पूजा करते हुए हमें स्वयं को निम्न भावों से भावित करना चाहिए। हे अक्षय रूपी! जिस प्रकार छिलके से रहित चावल पुन: उत्पन्न नहीं होते उसी तरह मैं भी जन्म मरण की परम्परा का क्षय कर आपके समान अक्षय स्थिति को प्राप्त करूं । हे आनंदघन! संसार की चौराशी लाख योनि रूप चतुर्गति में भ्रमण करतेकरते मैं थक गया हूँ। आपके द्वारा प्ररूपित रत्नत्रयी के द्वारा मैं इनसे मुक्त होकर सिद्ध स्थिति को उपलब्ध कर सकता हूँ। इसी उद्देश्य से मैं आपके समक्ष स्वस्तिक आदि का आलेखन कर रहा हूँ । हे दीनानाथ! स्वस्तिक की यह चार पंखुड़ियाँ चतुर्गति की वक्रता एवं उनके भयंकर कष्टकारी परिणामों का स्मरण करवाती है। इस संसार समुद्र को पार करने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप रत्नत्रयी की नौका ही सक्षम है जो आपके अनुग्रह से ही प्राप्त हो सकती है। हे अजन्मा! जिस प्रकार छिलके से निकला हुआ चावल पुन: छिलके को धारण नहीं करता और न ही अंकुरित होता है वैसे ही मेरी आत्मा भी कर्म रूपी छिलके से अनावृत्त होकर अखंड, निर्मल, उज्ज्वल शुद्ध स्वरूप को धारण करे । हे देवाधिदेव ! आप श्वेत वर्ण के धारक हैं, आपके भीतर करुणा रूपी श्वेत दुग्धधारा प्रवाहित होती है उसी के प्रतीक रूप यह श्वेत चावल मैं आपको अर्पित करता हूँ और आप मुझे आत्मा की निर्मल, निर्विकारी शुभ दशा प्रदान करें। हे परमात्मन्! आपके समान मैं भी अक्षय, अनंत, अखंड, अजन्मा, अकलंक अवस्था को प्राप्त कर सकूँ तद्हेतु इन अखंड अक्षतों द्वारा मेरी पूजा को स्वीकार करें।
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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