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________________ 100 ... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... समभाव होते हैं और इसी कारण समस्त गच्छ उनका आदर-सम्मान करते हैं, उनके हृदयगत भाव संसारी प्राणियों के लिए कल्पवृक्ष के समान है, ऐसे विशाल हृदय की पूजा करके उन्हीं गुणों की कामना करता हूँ । नाभि अमृतकुंड जिहां वसे, नाभिकमल नित सेव । अमृतमणि पाओ सदा, जय दादा गुरुदेव । । अर्थ - नाभि कमल की जगह आठ रूचक प्रदेश ऐसे हैं जो कर्म रहित होने से अमृत कुंड के समान हैं। हमारी आत्मा पूर्ण रूप से कर्म रहित होकर अमृतमय हो जाए, इस भावना से नाभिकमल की पूजा की जाती है। इन्हीं भावों से युत होकर गुरुदेव के नव अंगों की पूजा करनी चाहिए । पुष्प पूजा - जिनपूजा के क्रम में तीसरे स्थान पर पुष्पपूजा का उल्लेख है। अपने हृदय को अन्य जीवों के प्रति पुष्प के समान कोमल एवं निर्मल बनाने की भावना के साथ अर्धखुली अंजली मुद्रा में पुष्प धारण करते हुए निम्न श्लोक बोलें विकच निर्मल शुद्ध मनोरमैः, विशद चेतन भाव समुद्भवैः । सुपरिणाम प्रसून घनैर्नवैः, परम तत्त्व मयं ही यजाम्यहम् ।। जो अर्थ- जो फूल सुविकसित, निर्मल, शुद्ध, मनमोहक और सुगन्धित हैं। शुद्ध आत्मिक भावों की उत्पत्ति में हेतुभूत हैं तथा सुंदर मनोभावों का प्रतीक है। ऐसे सुगन्धितपुष्पों द्वारा मैं परम तत्त्व के धारक भगवान की पूजा करता हूँ। दोहा सुरभि अखंड कुसुम ग्रही, पूजो गत संताप । सुम जंतु भव्यज परे, करिये समकित छाप ।। अर्थ- सुरभि युक्त अखंड पुष्पों द्वारा परमात्मा की पूजा करने से जीव के ताप-संताप दूर होते हैं। परमात्मा के चरणों में समर्पित होने वाला पुष्प जिस प्रकार भव्य बन जाता है वैसे ही मुझे भी भव्यत्व की प्राप्ति हो । मंत्र - ॐ ह्रीं श्रीं परम पुरुषाय परमेश्वराय जन्म जरा मृत्युनिवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय पुष्पम् यजामहे स्वाहा । धूप पूजा - चौथे क्रम पर धूप पूजा की जाती है। धूप के समान ऊर्ध्वगामी
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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