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________________ अध्याय-3 अष्ट प्रकारी पूजा का बहुपक्षीय अनुशीलन जिनपूजा एक आगमिक विधान है। प्राचीन काल से किसी न किसी रूप में आराध्य की पूजा-उपासना की जाती रही है। प्राच्य काल से अब तक उपासना विधियों में अनेक परिवर्तन देखे जाते हैं। आगम युग में सर्वोपचारी पूजा का प्रचलन था। वहीं बदलते-बदलते वर्तमान में अष्टप्रकारी पूजा को स्थान प्राप्त हो गया है। वर्तमान श्रावकवर्ग जिनपूजा विधि के रूप में मात्र अष्टप्रकारी पूजा विधि से ही परिचित हैं और वही सर्वत्र प्रचलित है। यह पूजा श्रावकों का नित्य कर्तव्य है। यदि कर्तव्य का निर्वाह सिर्फ Duty समझकर किया जाए तो वह कभी मानसिक शान्ति एवं आत्मिक आनंद में हेतुभूत नहीं बनता। यदि उन्हीं कर्तव्यों को जीवन के अमूल्य सार्थक क्षण मानकर किए जाएं तो ये विशिष्ट उपलब्धि करवा सकते है। वर्तमान में जीत व्यवहार का अनुसरण किया जाता है। तदनुसार श्रावक वर्ग को सांसारिक आसक्ति न्यून करने एवं अपने आप को अध्यात्म मार्ग पर गतिशील रखने हेतु नित्य त्रिकाल दर्शन एवं अष्टप्रकारी पूजा का आचरण करना चाहिए। परंतु यह आचरण कैसा हो? किस प्रकार प्रत्येक पूजा को सम्पन्न किया जाए? पूजा में उपयोगी द्रव्यों का स्वरूप कैसा हो? इन पूजाओं का शास्त्रीय स्वरूप क्या है? और वर्तमान में इनके प्रति किस प्रकार की जनधारणा है? ऐसे कई विषय हैं जिनसे सामान्य जनता आज भी अनभिज्ञ है। अधिकांश वर्ग रूढ़ परम्परा का अनुकरण करते हुए इन पूजाओं को सम्पन्न करता है। इनके अन्तर्निहित रहस्यों आदि से उपासक वर्ग प्रायः अपरिचित है। ऐसी अज्ञेयता में की जा रही आराधनाएँ कहाँ तक सफलीभूत हो सकती हैं? इसी प्रश्न को ध्यान में रखते हुए इस अध्याय में अष्टप्रकारी पूजा करने की विधि, उनमें भावों का रस उड़ेलने वाले दोहे एवं उनसे सम्बन्धित अनेक विध तथ्यों का विवेचन किया जा रहा है, जिससे साधकवर्ग मूल मार्ग से परिचित हो सकें, सामर्थ्य अनुसार उसका आचरण कर सकें तथा भाव जगत को भक्ति योग से जोड़ सकें, क्योंकि
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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