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________________ 60... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... है वह अंग पूजा कहलाती है। जैसे- जिन प्रतिमा से निर्माल्य उतारना, जल पूजा, चंदन पूजा, पुष्प पूजा, आंगी पूजा आदि। शास्त्रों में अंगपूजा को विघ्ननाशक या समन्तभद्रा पूजा भी कहा जाता है। इस पूजा के द्वारा चित्त की प्रसन्नता प्राप्त होती है। ___2. अग्रपूजा- अग्र अर्थात आगे। जो पूजा परमात्मा के सामने सम्पन्न की जाती है, परन्तु जिसमें जिनप्रतिमा को स्पर्श करने की आवश्यकता नहीं रहती वह अग्रपूजा कही जाती है। परमात्मा के समक्ष धूप, दीप, अक्षत आदि अर्पित करना अग्रपूजा है। इसे अभ्युदयकारिणी या सर्वभद्रा पूजा के नाम से भी जाना जाता है। मोक्षमार्ग की साधना में सहायक हो ऐसा अभ्युदय इस पूजा के द्वारा प्राप्त होता है। यह पूजा गर्भगृह के बाहर सम्पन्न की जाती है। 3. भावपूजा- जिस पूजा में द्रव्य के आलंबन की आवश्यकता नहीं रहती वह भावपूजा कहलाती है। परमात्मा के सामने स्तुति, स्तवन, चैत्यवंदन, गीत गान आदि करना भावपूजा है। इसे निवृत्तिकारिणी या सर्वसिद्धिफला पूजा भी कहते हैं। यह पूजा मोक्ष पद को प्राप्त करवाने वाली है। जिनेश्वर परमात्मा की आज्ञा पालन को उत्कृष्ट भाव पूजा कहा जाता है। ये तीनो पूजाएँ पूजार्थी जीव के आध्यात्मिक विकास में सहायक बनती है। कुछ ग्रन्थकारों ने पंचोपचारी, अष्टोपचारी और सर्वोपचारी इन तीन पूजाओं को पूजात्रिक माना है। जिन प्रतिमा की पूजा करते हुए कुछ बातों की सावधानी अवश्य रखनी चाहिए। जैसे कि • अंग, अग्र एवं भावपूजा करते हुए उनका क्रम उल्लंघन नहीं करना चाहिए। • पूजा करते समय द्रव्यशुद्धि, भावशुद्धि, स्वद्रव्य आदि का विवेक अवश्य रखना चाहिए। • जिस वक्त जो पूजा की जा रही हो उस समय मन को उन्हीं भावों से भावित करना चाहिए। • अंगपूजा करते समय मुखकोश का प्रयोग जरूरी है। पूजार्थी के वस्त्र का जिनबिम्ब आदि से स्पर्श न हो इसकी भी सावधानी रखनी चाहिए। • पूजा के वस्त्रों में ही अंगपूजा करनी चाहिए। • धूप, दीप आदि अग्रपूजा गर्भगृह के अन्दर जाकर नहीं करनी चाहिए।
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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