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________________ प्रतिक्रमण की मौलिक विधियाँ एवं तुलनात्मक समीक्षा ...125 मुख के आगे रखें तथा दाहिने हाथ को स्थापनाचार्य या गुरु सम्मुख करके ज्येष्ठ साधु 'इच्छामि खमासमणो पियं च मे जंभे' इत्यादि प्रथम आलापक बोले। फिर एक खमासमण देकर पूर्ववत मुद्रा में 'इच्छामि खमासमणो पुव्विं चेइयाइं वंदित्ता' इत्यादि दूसरा आलापक कहे। फिर एक खमासमण देकर पूर्ववत मुद्रा में 'इच्छामि... अब्भट्ठिओमि तुब्भण्हं संतियं' इत्यादि तीसरा आलापक कहे। __फिर एक खमासमण देकर पूर्ववत मुद्रा में 'इच्छामि... अहमपुव्वाई' इत्यादि चौथा आलापक बोले। __इन चारों आलापकों के अन्त में गुरु क्रमश: 1. तुब्भेहिं समं 2. अहमवि वंदामि चेइयाई, 3. आयरियसंतियं 4. नित्थारपारगा होह- इन वचनों का प्रयोग करें। यहाँ श्रावक भी खमासमण पूर्वक मस्तक को भूमि पर रखते हुए चार बार तीन-तीन नवकार मन्त्र बोलें। चतुर्थ क्षमायाचना के बाद गुरु 'नित्थारपारगा होह' कहें। तब सभी ‘इच्छामो अणुसलुि' बोलें। तदनन्तर प्रचलित परिपाटी के अनुसार गुरु भगवन्त पाक्षिक प्रायश्चित्त के रूप में एक उपवास अथवा उतने तप के परिमाण में आयंबिल आदि तप करने का निर्देश करते हैं। यहाँ पाक्षिक प्रतिक्रमण की मूल विधि समाप्त हो जाती है। इसके बाद की सम्पूर्ण विधि शेष दैवसिक प्रतिक्रमण के समान ही की जाती है। किन्तु उनमें कुछ अन्तर इस प्रकार हैं1. जहाँ दैवसिक प्रतिक्रमण को विराम दिया था, उसके आगे द्वादशावर्त्तवन्दन से पुन: शुरू करते हैं। 2. श्रुतदेवता के कायोत्सर्ग में 'कमलदल' की स्तुति, भवन देवता के कायोत्सर्ग में 'ज्ञानादिगुण युतानां' की स्तुति और क्षेत्रदेवता के कायोत्सर्ग में 'यस्या क्षेत्र समाश्रित्य' की स्तुति बोलते हैं। 3. स्तवन की जगह 'अजित शांति' और लघुशान्ति की जगह नमोऽर्हत् पूर्वक ‘बृहदशान्ति' कहते हैं। तुलना- यदि हम पाक्षिक प्रतिक्रमण विधि का तत्सम्बन्धी पूर्व-परवर्ती ग्रन्थों से तुलनात्मक या ऐतिहासिक अध्ययन करते हैं तो कुछ मौलिकताएँ इस
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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