SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ...51 निवारण करना होता है उसी तरह दोषयुक्त साधक को प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त करने का उद्देश्य कष्ट या क्लेश प्राप्ति नहीं है, अपितु उसे दोष मुक्त करना है। इस प्रकार भावनात्मक उच्चस्तरीय परिवर्तन एवं मानसिक विशोधन की अपेक्षा भी प्रतिक्रमण का मूल्य सर्वोपरि सिद्ध होता है। लौकिक-लोकोत्तर दृष्टि से- भाव आवश्यक यह लोकोत्तर-क्रिया है, क्योंकि यह क्रिया लोकोत्तर (मोक्ष) के उद्देश्य से उपयोग पूर्वक की जाती है। इसलिये पहले उसका समर्थन लोकोत्तर दृष्टि से करते हैं और उसके बाद व्यावहारिक दृष्टि से भी उसका समर्थन किया जायेगा। क्योंकि 'आवश्यक है लोकोत्तर-क्रिया, पर उसके अधिकारी व्यवहारनिष्ठ होते हैं। जिन तत्त्वों के होने पर मनुष्य का जीवन अन्य प्राणियों के जीवन से उच्च समझा जा सकता है और अन्त में विकास की पराकाष्ठा तक पहुँच सकता है वे तत्त्व निम्न हैं 1. समभाव अर्थात शुद्ध श्रद्धा, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र का संमिश्रण। 2. जीवन को विशुद्ध बनाने के लिए सर्वोपरि जीवन जीने वाले महात्माओं को आदर्श रूप में स्वीकार करके उनकी ओर सदा दृष्टि रखना 3. गुणवानों का बहुमान एवं विनय करना 4. कर्त्तव्य की स्मृति और कर्तव्य पालन में होने वाली गलतियों का अवलोकन करके निष्कपट भाव से उनका संशोधन करना और फिर से वैसी गलतियाँ न हों, इसके लिए आत्मा को जागृत रखना 5. ध्यान का अभ्यास करके प्रत्येक वस्तु के स्वरूप को यथार्थ रीति से समझने के लिए विवेक-शक्ति का विकास करना और 6. त्याग वृत्ति के द्वारा संतोष एवं सहनशीलता को बढ़ाना। इन तत्त्वों के आधार पर आवश्यक क्रिया का महल खड़ा है। इसलिए शास्त्र कहता है कि 'आवश्यक क्रिया' आत्मा को प्राप्त भावों (शुद्धि) से गिरने नहीं देती, बल्कि अपूर्व भाव प्राप्त करवाती है तथा क्षायोपशमिक भाव पूर्वक की जाने वाली क्रिया से पतित आत्मा की भी फिर से भाव वृद्धि होती है। इस कारण गुणों की वृद्धि के लिये तथा प्राप्त गुणों से स्खलित न होने के लिए 'आवश्यक क्रिया' का आचरण अत्यन्त उपयोगी है।22 __ व्यवहार में आरोग्य, कौटुम्बिक नीति, सामाजिक नीति इत्यादि विषय सम्मिलित हैं। आरोग्य के लिए मुख्य मानसिक प्रसन्नता चाहिए। यद्यपि दुनियाँ
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy