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________________ 356... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में के परिणाम मात्र से प्रमाद दशा का परिहार तो नहीं होता है, किन्तु प्रमाद उच्छेद के लिए प्रयत्नशील बने हुए मुनियों को चारित्र के माध्यम से गृहीत प्रत्याख्यान का यथावत पालन करना चाहिए, यही अप्रमत्त भाव का सेवन है। 75 प्रत्याख्यान साधुओं को भी लाभकारी कैसे ? प्रस्तुत सन्दर्भ में कोई यह प्रश्न भी करता है कि पाप से बचने के लिए प्रत्याख्यान है और साधुओं ने सभी पाप व्यापार के त्याग रूप सामायिक को स्वीकार किया है, तो उन साधुओं के लिए प्रत्याख्यान की आवश्यकता क्या है ? समाधान - आचार्य हरिभद्र सूरिजी कहते हैं कि समस्त पाप व्यापारों के त्यागरूप सामायिक में भी यह प्रत्याख्यान भगवदाज्ञा होने से तथा अप्रमाद की वृद्धि का कारण होने से श्रेयकारी ही है। भगवान की आज्ञा का अनुसरण करने में ही धर्म है | 76 पंचाशक प्रकरण में इस प्रसंग का स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है कि प्रत्याख्यान से सामायिक में अप्रमाद की वृद्धि होती है, इसमें अनुभव प्रमाण है अर्थात प्रत्याख्यान करने वालों को प्रायः अप्रमाद वृद्धि का अनुभव होता है। इससे आभ्यन्तर और बाह्य- ये दो लाभ होते हैं। अप्रमाद विरति का स्मरण होना आभ्यन्तर लाभ है और अप्रमाद से सम्पूर्णतया शुद्ध प्रवृत्ति होना, बाह्य लाभ है। यद्यपि सामायिक में रहते हुए साधु अशुद्ध प्रवृत्ति का त्याग कर देता है, फिर भी प्रमाद, रोग, असमर्थता आदि कारणों से अथवा दूषित आहार के सेवन आदि से मुनि जीवन में दोष आ जाना सम्भव है। प्रत्याख्यान से इन सबका निर्गमन हो जाता है और सत्त्व गुण की अभिवृद्धि होती है। 77 तप प्रत्याख्यान के समान दीक्षा की प्रतिज्ञा में आगार क्यों नहीं? यहाँ किसी का प्रश्न है कि नवकारसी आदि अल्पकालीन प्रत्याख्यान है, फिर भी इन अल्पकालिक-प्रत्याख्यानों को आगार सहित लेने का विधान है, तब सामायिक तो जीवन पर्यन्त के लिए होती है उसमें आगार क्यों नहीं? समाधान आगारों की आवश्यकता वहाँ होती है जहाँ भंग का प्रसंग हो । सर्वसावद्य योग के त्यागरूप सामायिक में शत्रु-मित्र आदि सभी पदार्थों के प्रति जीवनपर्यन्त समभाव होने के कारण प्रत्येक प्रवृत्ति समभावपूर्वक ही होती है। रूग्णादि के समय अपवाद का सेवन करना पड़े तो वह भी समभाव पूर्वक ही होता है। इसलिए सामायिक खण्डित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है और इसीलिए वहाँ आगारों (अपवादों) की जरूरत भी नहीं रहती है अतः इसमें असंगति नहीं है।
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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