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________________ प्रत्याख्यान आवश्यक का शास्त्रीय अनुचिन्तन ...351 होता है। इस अपेक्षा से यह आगार मुनियों के ही होता है। गृहस्थों के लिए नहीं। गृहस्थों के लिए यह आगार इस प्रकार बताया गया है- भोजन शुरू करने के बाद ऐसा व्यक्ति आ जाए जिसकी नजर लगने से खाना नहीं पचता हो तो एकासन वाला गृहस्थ दूसरे स्थान पर जाकर भोजन कर सकता है, इससे नियम भंग नहीं होता। यह सागारिक आगार उपलक्षण से बंदी (भाट-चारण आदि), सर्प, अग्निभय, जल का रेला, मकान गिरना आदि अनेक आगार युक्त होता है।66 9. आकुञ्चन प्रसारण- आकुंचन - संकोच, प्रसारण - विस्तार। गृहस्थ के द्वारा एकाशन आदि करते समय एक आसन में स्थिर नहीं बैठना अथवा सुन्न पड़ने की स्थिति में हाथ-पैर आदि अंगों को संकुचित करना या फैलाना आकुंचन-प्रसारण आगार है। प्रत्याख्यान लेते समय यह आगार रखने से नियम भंग नहीं होता है। 10. गुरु अभ्युत्थान- एकाशन करते समय गुरु या अतिथि विशेष साध पधार जाए तो उनका विनय-सत्कार करने के लिए सहसा उठकर खड़े हो जाना, गुर्वभ्युत्थान आगार है। प्रस्तुत आगार का आशय महत्त्वपूर्ण है। गुरुजनों एवं अतिथियों के आने पर अवश्य उठकर खड़ा हो जाना चाहिए। उस समय यह भ्रान्ति नहीं रखनी चाहिए कि 'एकासन व्रत में कैसे खड़े होऊँ?' गुरूजनों के लिए खड़ा होने पर व्रतभंग नहीं होता है, प्रत्युत विनय तप की आराधना होती है। आचार्य सिद्धसेन ने भी लिखा है कि गुरु का अभ्युत्थान करने के लिए भोजन करते हुए उठ खड़े होना आवश्यक कर्त्तव्य है, इससे प्रत्याख्यान का भंग नहीं होता है।67 . 11. पारिष्ठापनिकाकार- परि - सर्व प्रकार से, स्थापन - रखना, आकार – छूट। सर्वथा त्याग करने के प्रयोजन से की गई क्रिया पारिष्ठापनिका कहलाती हैं। जैन मुनि का आचार है कि वह अपनी क्षुधापूर्ति के लिए परिमित मात्रा में ही आहारादि लाए, अधिक नहीं। कभी-कदाच भिक्षा में अधिक आहार आ जाए और उस अवशिष्ट भाग को परित्यक्त करने की स्थिति उत्पन्न हो जाए तो गुरु आज्ञा से तपस्वी मुनि को वह आहार ग्रहण कर लेना चाहिए। यह पारिष्ठापनिकाकार आगार है।
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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