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________________ अध्याय-6 कायोत्सर्ग आवश्यक का मनोवैज्ञानिक अनुसंधान ___ कायोत्सर्ग षडावश्यक का पांचवाँ अंग है। यह पाप विमुक्ति एवं देह निर्ममत्व की अचूक साधना है। प्रतिक्रमण का मूल उद्देश्य कायोत्सर्ग है, क्योंकि यही एक ऐसा माध्यम है जिससे हम अपने अन्तर्मन में या आत्मस्वभाव में स्थित हो सकते हैं। वस्तुतः हमारे दुःखों का मूल कारण शरीर और ऐन्द्रिक सुख के प्रति रहा हुआ ममत्व भाव है। हम दिन-रात इन्द्रिय लालसा की सम्पूर्ति एवं ऐच्छिक सुख की प्राप्ति के लिए ही परिश्रम कर रहे हैं। शरीरजन्य अस्थायी सुख के पीछे इतने भ्रमित हैं कि इनका सम्पोषण करने वाले भौतिक संसाधनों को एकत्रित करने में समग्र जीवन बिता देते हैं। कभी-कभार ये सुख के साधन शरीर से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। कायोत्सर्ग- इन बहिर्मुखी प्रवृत्तियों से अंतर्मुखी होने का सशक्त आधार है। हमारा कुटुम्बियों एवं मित्रों के प्रति जो रागात्मक भाव होता है वह भी अधिकांश दैहिक स्तर पर ही होता है। संसारी व्यक्ति राग दशा के कारण ही मोहपाश में बंधता है। ज्ञानीपुरुषों का उपदेश है कि बन्धन-मुक्त होने के लिए सम्बन्ध-मुक्त होना आवश्यक है। सम्बन्ध-मुक्ति के लिए देह से सम्बन्ध विच्छेद करना आवश्यक है। देहिक सम्बन्ध का विच्छेद होना ही कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग का अर्थ विन्यास कायोत्सर्ग का शब्दानुसारी अर्थ है- काया का उत्सर्ग करना। इसका प्रयोजनभूत अर्थ है- शारीरिक प्रवृत्ति एवं शारीरिक ममत्व का विसर्जन करना अथवा देहातीत अवस्था का अनुभव करना। अनुयोगद्वार में कायोत्सर्ग का गुणनिष्पन्न नाम 'व्रण चिकित्सा' अर्थात घावों की चिकित्सा करने वाला कहा गया है। सावधानी पूर्वक धर्म आराधना एवं अहिंसादि व्रतों का सदाचरण करते हुए भी प्रमाद आदि के कारण अनेक दोष लग जाते हैं, अपराध वृत्ति पनप उठती है, आत्मा के ज्ञानादि गुण असत्प्रवृत्तियों से आच्छादित हो जाते हैं, ये निर्मल स्वरूपी आत्म शरीर के घाव हैं। इन दोष रूपी घावों को ठीक करने के
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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