SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामायिक आवश्यक का मौलिक विश्लेषण... 73 इसी क्रम में कहा गया है कि करोड़ों जन्म तक निरन्तर उग्र तपश्चरण करने वाला साधक जिन कर्मों को नष्ट नहीं कर सकता, उन कर्मों को समता भावपूर्वक सामायिक करने वाला साधक मात्र अल्प क्षणों में नष्ट कर डालता है। 1 116 जैन धर्म में सामायिक को मोक्ष का निकटतम या साधकतम कारण स्वीकार करते हुए कहा गया है कि जो भी साधक अतीतकाल में मोक्ष गए हैं, वर्तमान में जा रहे हैं और भविष्य में जाएंगे, उन सभी जीवों के मुक्ति का आधार सामायिक था, है और रहेगा। 117 यह भी निर्दिष्ट है कि चाहे कोई कितना ही तीव्र तप तपे, जप जपे, चारित्र पाले, परन्तु समता भाव रूप सामायिक के बिना न किसी को मोक्ष हुआ है और न कभी भविष्य में होगा। सामायिक को समता का क्षीरसमुद्र भी कहा है । जो इसमें स्नान करता है, वह श्रावक भी साधु के समान हो जाता है। जैन आचार्यों ने इसे शुद्ध यौगिक क्रिया के रूप में मान्य किया है । यौगिक क्रिया मुख्य रूप से चार प्रकार की वर्णित हैं- 1. मंत्र योग 2. लय योग 3. राज योग और 4. हठ योग। ये चारों योग अभ्यास एवं सद्गुरु के उपदेश से सिद्ध होते हैं। इनमें से सामायिक व्रत को राज योग के समतुल्य माना है। पाठकगण! सामायिक के महत्त्व को हृदयस्थ कर संकल्प करें कि उन्हें किसी भी स्थिति में सामायिक की आराधना अवश्य करनी है। देवता भी इस व्रत को स्वीकार करने की तीव्र अभिलाषा रखते हैं और भावना करते हैं कि 'यदि एक मुहूर्त भर के लिए भी सामायिक व्रत प्राप्त हो जाए, तो यह देव जन्म सफल हो जाए।' लेकिन चारित्रमोह के उदय के कारण वे किसी प्रकार का व्रत स्वीकार नहीं कर सकते हैं। भौतिक दृष्टि से देवता की दुनियाँ कितनी ही मूल्यवान हो, परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से मनुष्य गति ही श्रेष्ठतम है अतएव सामायिक करने का अधिकार मानव को ही है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सामायिक का प्रासंगिक स्वरूप सामायिक आत्म स्थित होने एवं कषाय उपशमन करने की विशिष्ट क्रिया है। यदि इसके मानसिक एवं वैयक्तिक प्रभाव के विषय में चिंतन करें तो यह समभाव में आने का साधन विशेष है। सामायिक के द्वारा मन की विशुद्धि, क्रोधादि कषायों की निर्मलता और आन्तरिक भावों का शोधन होता है। मन
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy