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________________ 68...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में मुनिजन समत्व भाव की साधना से पृथक् कर देते हैं। योगीजन समभाव रूपी सूर्य के द्वारा राग-द्वेष और मोह दृष्टि तिमिर का नाश करके अपनी आत्मा में परमात्मा को देखने लगते हैं अर्थात आत्मानुभूति कर लेते हैं।96 इस प्रकार जैनसाधना में सामायिक का अद्वितीय स्थान सिद्ध होता है। ____ आचारांगसूत्र में समभाव को धर्म एवं समभाव की साधना में प्रवृत्त जीव को श्रमण कहा गया है।97 उपाध्याय यशोविजयजी ने सामायिक को सम्पर्ण द्वादशांगीरूप जिनवाणी का सार बताया है।98 जिस प्रकार पुष्पों का सार गंध है, दूध का सार घृत है, तिल का सार तेल है, इक्षुखण्ड का सार रस है, उसी प्रकार साधना का सार समता है। यदि पुष्प से गंध, दूध से घृत, तिल से तेल निकल जाए, तो निस्सार बन जाते हैं वैसे ही साधना से सामायिक निकल जाए, तो साधना निस्सार हो जाती है। समता के अभाव में उपासना उपहास रूप है। जैनाचार्यों ने सामायिक आवश्यक को आद्यमंगल माना है। विश्व में जितने भी द्रव्यमंगल हैं वे अमंगल के रूप में परिवर्तित हो सकते हैं, किन्तु सामायिक ऐसा भावमंगल है, जो कभी भी अमंगलरूप नहीं हो सकता। इस तरह समभाव की साधना सभी मंगलों का मूल केन्द्र है।99 जैन ग्रन्थों में कहा गया है कि इस विराट् संसार में परिभ्रमण करने वाला जीव यदि एक बार भी भाव सामायिक ग्रहण कर लें तो वह सात-आठ भव से अधिक संसारगर्त में परिभ्रमण नहीं करता। दिगम्बर साहित्य के अनुसार सामायिक करता हुआ गृहस्थ भी साधु तुल्य हो जाता है इसलिए बहुत बार सामायिक करना चाहिए।100 धवला टीका में सामायिक क्रिया की मूल्यवत्ता दर्शाते हुए कहा गया है कि सामायिक चारित्र में संयम के सभी अंगों का समावेश है और वह सामायिक पाठ में उच्चरित 'सर्वसावधयोग' पद से स्वीकार किया गया है। यदि यहाँ संयम के किसी एक भेद की मुख्यता होती तो 'सर्व' शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता था, क्योंकि ऐसे स्थान पर 'सर्व' शब्द के प्रयोग करने में विरोध आता है।101 इस कथन से यह सुसिद्ध है कि जिसने संयम के सम्पूर्ण भेदों- व्रत, समिति, गुप्ति,परीषह, आदि को अपने अन्तर्गत कर लिया है ऐसे अभेद रूप से एक यम को धारण करने वाला जीव सामायिक शुद्धि-संयत कहलाता है। रत्नकरण्डक श्रावकाचार कहता है कि सामायिक के समय आरम्भजन्य समस्त
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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