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________________ प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय अनुसंधान...xllx जान-बूझकर या अनजान में जिन भावों से पाप किये हों, वे उसी भाव से कपट रहित होकर बालक की भाँति आलोचना करें, तो ही उन्हें प्रायश्चित्त दिया जाता है और वही आत्मा शुद्ध होती है परन्तु लज्जा, अहंकार, भय आदि के कारण अमुक पापों को हृदय में छुपाकर रखें तो उसे केवलज्ञानी जानते हुए भी प्रायश्चित्त नहीं देते। छद्मस्थ गुरु भी दो-तीन बार आलोचना सुनते हैं और यदि उन्हें यह ज्ञात हो जाए कि यह अपराधी कुछ पापों को छिपा रहा है तो उसे प्रायश्चित्त न देकर कह देते हैं कि तुम अन्य आचार्य आदि के समीप आलोचना करो। किन्तु जिस आलोचक को ज्ञानावरणी आदि कर्मोदय के कारण पाप स्मृति में नहीं आ रहे हों उसे आलोचनार्ह भिन्न-भिन्न प्रकार से याद दिलवाते हैं पर पापगुप्तक जानबूझकर को याद नहीं कराते हैं। ___ जैन शास्त्रों में प्रायश्चित्त दान के विषय में यह भी निर्देश है कि कोई सामान्य ढंग से ऐसे कह दें कि मैंने अनेक पापकर्म किये हैं, सबका प्रायश्चित्त दे दीजिए तो इस प्रकार कहने वाले को भी प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता। परन्तु एक-एक पापों को याद करके कहे और विस्मृत पापों का सामान्य से प्रायश्चित्त मांगे, तो उसे प्रायश्चित्त दिया जाता है। ज्ञानी पुरुषों ने कहा है तं न दुक्कर जं पडिसेविज्जई। तं दुक्कर न सम्मं आलोइज्जइत्ति ।। पाप करना दुष्कर नहीं है परन्तु सम्यक् प्रकार से आलोचना करना दुष्कर है। आलोचना सबके लिए अनिवार्य है। आलोचना के बिना शुद्धि नहीं होती। जो अनर्थ जहर, शस्त्र या तीर से नहीं होता उससे अनेक गुणा हानि कपट पूर्वक पाप छिपाने से हो जाती है। पाप गुप्त रखने से रुक्मिणी राजकुमारी के 100000 भव बढ़ गये। विष तो एक बार शरीर को ही नुकसान पहुंचाता है जबकि अपराध रूपी विष का उद्धरण नहीं करने पर आत्मा अनन्त बार जन्म मरण रूपी दुःख को प्राप्त करती है। ___ यहाँ यह जानना आवश्यक है कि प्रायश्चित्त की सम्यक विधि केवली भगवान के अतिरिक्त कोई नहीं जानता है। जिस प्रकार शीघ्रता से फाड़े जाने वाले कपड़े (तन्तु) के छेदन का काल जानना कठिन है उसी प्रकार मन में उत्पन्न होने वाले शुभ-अशुभ परिणामों को जानना भी कठिन है। मन के परिणामों की गति अत्यन्त
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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