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________________ प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय अनुसंधान...xivil आलोचना शल्योद्धरण के समान होनी चाहिए। साधक को अपराध रूपी शल्य निकालने में क्षण भर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। निशीथ भाष्य (631011) के अनुसार अपराधी को दोष-विशोधन के लिए गुरु अभिमुख अश्व के समान प्रस्थान करना चाहिए। अतिचार रूपी शल्यों की उपेक्षा करने वाले आचार्य और शिष्य दोनों ही दुःखों को प्राप्त होते हैं। इसलिए आचार्य के लिए भी आलोचना अनिवार्य कही गई है। व्यवहार भाष्य (4296-98) के अनुसार जैसे-चिकित्सा पारंगत वैद्य भी अपनी व्याधि दूसरे वैद्य को बताता है और उसके द्वारा बताई गई चिकित्सा का प्रयोग करता है वैसे ही प्रायश्चित्त अधिकारी आचार्य को भी अन्य आचार्य के समीप अपने दोषों की आलोचना करनी चाहिए। जो आचार्य छत्तीस गुणों से सम्पन्न हैं, आगम आदि पाँच व्यवहार प्रयोगों में कुशल हैं, उन्हें भी अन्य आचार्य के पास विशोधि करनी चाहिए। आलोचना काल में किसी तरह का भावशल्य न रह जाये, इस सम्बन्ध में पूर्ण सावधानी रखनी चाहिए। गीतार्थ या आलोचनार्ह गुरु के सामने किसी दोष का भावपूर्वक प्रकाशन नहीं करना भावशल्य कहलाता है। भावशल्य को दूर न करने से जन्म-जन्मान्तर तक कटु फल भुगतने पड़ते हैं। भाष्यकार संघदासगणि (1022) ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जो जीव शल्ययुक्त (आलोचना किये बिना ही) मृत्यु को प्राप्त करते हैं वे महागहन संसार रूपी अटवीं में अनंतकाल तक परिभ्रमण करते रहते हैं तथा उनके लिए धर्म प्राप्ति दुर्लभ बनती है। दृष्टान्त के आधार पर यदि व्रण चिकित्सज्ञ (फोड़ा-फुसी की चिकित्सा) शरीर में हुए दुर्गन्ध युक्त फोड़े को बढ़ने दे और उसे दूर न करे तो वह फोड़ा मृत्यु का कारण होने से अनिष्टकारक होता है। उसी प्रकार भावशल्य को दूर नहीं करने पर वह अनन्त जन्म-मरण का निमित्तभूत होने से अनिष्टकारक ही है। गीतार्थ गुरु के सम्मुख स्वयं के दुष्कृत्यों को बतलाना यही शल्योद्धार है। बृहत्कल्पभाष्य (3606) में कहा गया है कि जब तक आलोचना न हो तब तक कर्मबंध है। सैद्धान्तिक मतानुसार जिस मुनि का पात्र चुराया गया है वह जब तक उसकी आलोचना और प्रतिक्रमण नहीं कर लेता, तब तक उसके कर्मबंध होता रहता है। स्पष्ट रूप में कहें तो गीतार्थ मतानुसार शल्य का उद्धरण आलोचना और
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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