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________________ 262...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण पातिमोक्ख-ऐसे दो विभाग हैं। भिक्खु पातिमोक्ख के नियमों की संख्या अधिक है किन्तु वर्तमान में हमें यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ है। यहाँ भिक्षु-भिक्षुणियों को जिस अपराध के कारण दण्ड दिया जाता है उसे आपत्ति कहते हैं। इस परम्परा में दण्ड (प्रायश्चित्त) के आठ प्रकार माने गये हैं उनके नाम हैं-1. पाराजिक, 2. संघादिदेस, 3. नैसर्गिक, 4. पाचित्तिय, 5. प्रतिदेशनीय, 6. थुल्लच्च, 7. दुक्कट और 8. दुब्भासिय। विनयपिटक आदि में इन प्रायश्चित्तों के योग्य अपराधों का विस्तृत वर्णन किया गया है। थेरवादी निकाय में भिक्षणियों के लिए 166 प्रायश्चित्त नियम बताये गये हैं तथा महासांघिक निकाय में प्रायश्चित्त धर्म की संख्या 949 है। दोनों में ही पाचित्तिय सम्बन्धी नियम प्रायः समान हैं। उन नियमों में कुछ दुष्कृत्य से सम्बन्धित हैं, कुछ मैथुन जन्य अपराध के लिए प्रायश्चित्त देने सम्बन्धी हैं, कुछ हिंसा सम्बन्धी तो कुछ चोरी सम्बन्धी, कछ निषिद्ध आहार सम्बन्धी तो कितने ही आचारसंहिता के विरुद्ध कार्य के अपराध के लिए प्रायश्चित्त देने सम्बन्धी हैं। जैन संघ में किसी भी अपराध का दण्ड अपराधजन्य परिस्थितियों के अनुसार दिया जाता है। यदि कोई साधक स्वेच्छा से दोष सेवन करता है, बारबार उसकी पुनरावृत्ति करता है, गुरु के समक्ष अपराध स्वीकार नहीं करता है तो उसे कठोर दण्ड देने का विधान है, किन्तु वही अपराध अनभिज्ञता में या विशेष परिस्थिति में हुआ हो तो उसका प्रायश्चित्त कम दिया जाता है। बौद्ध संघ में इस तरह की प्रायश्चित्त व्यवस्था नहीं है। जैनशासन में प्रवर्तित दस प्रायश्चित्तों में से आलोचना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग आदि उस कोटि के प्रायश्चित्त हैं जिन्हें साधक उभय सन्ध्याओं में नियम से करता है पर बौद्ध शासन में किसी भी प्रायश्चित्त को प्रतिदिन के लिए अनिवार्य नहीं माना गया है। वहाँ तो पन्द्रहवें दिन उपोसथ के समय पातिमोक्ख नियमों का वाचन होता है उस समय आपराधिक नियमों को सूचित किया जाता है यानी कोई भी अपराध पन्द्रहवें दिन ही संघ के सामने प्रकट होता है। इस प्रकार बौद्ध धर्म में प्रायश्चित्त विधान समुचित रूप से विद्यमान है। भारतीय संस्कृति की एक विशिष्ट संस्कृति के रूप में वैदिक संस्कृति का नाम लिया जाता है। इस परम्परा के ग्रन्थों में ऋषि महर्षियों द्वारा पापरहित होने
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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