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________________ जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ...253 का कोई उल्लेख नहीं मिलता। . जैन संघ में भिक्षु-भिक्षुणी के द्वारा किये गये अपराधों को जितनी गम्भीरता से स्वीकार किया है उतना ही गृहस्थ श्रावक-श्राविकाओं के द्वारा कृत दोषों पर भी सूक्ष्मता पूर्वक विचार कर सभी के लिए समान रूप से दण्ड प्रक्रिया प्रस्थापित की गई है तथा वर्तमान में भी यह परिपाटी अक्षुण्ण रूप से प्रवर्तित है जबकि बौद्ध साहित्य में भिक्षु-भिक्षुणी सम्बन्धी प्रायश्चित्त का ही प्रधानता से उल्लेख मिलता है। इस भाँति हम देखते हैं कि दोनों परम्पराओं में प्रायश्चित्त सम्बन्धी नियमों को लेकर कुछ अन्तर है, परन्तु सादृश्यता भी देखी जाती है। • जैन और बौद्ध परम्पराओं में पारांचिक एवं पाराजिक प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में समान दृष्टिकोण है। जैन मत में पारांचिक दण्ड देते हुए अपराधी भिक्षु को सदैव के लिए संघ से बहिष्कृत कर दिया जाता है। इसी तरह बौद्ध संघ में भी पाराजिक अपराधी को संघ से सर्वदा के लिए निकाल दिया जाता है। • जिस प्रकार जैन-परम्परा में अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का विधान है उसी प्रकार बौद्ध-परम्परा में संघादिशेष प्रायश्चित्त का विधान है। बौद्ध परम्परा में संघादिशेष आपत्ति होने पर भिक्ष को संघ के सन्तोष के लिए भिक्षु आवास के बाहर कुछ रातें बितानी होती हैं और उसके पश्चात्त उसे भिक्षु संघ में पुन: प्रवेश दिया जाता है। इस प्रकार अपने मूल मन्तव्य की दृष्टि से अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त और संघादिशेष प्रायश्चित्त समान ही है। • बौद्ध परम्परा में प्रायश्चित्त के अन्य प्रकार नैसर्गिक और पाचित्तिय आदि हैं, उनकी तुलना जैन-परम्परा के आलोचना और प्रतिक्रमण से की जा सकती है। - इस प्रकार जैन एवं बौद्ध दोनों संघों में भिक्षु जीवन एवं चतुर्विध संघ को पवित्र बनाये रखने के लिए विभिन्न नियमों और प्रायश्चित्तों का विधान है।
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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