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________________ जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ... 211 लघ्वम्लपरमाकृतौ। तद्भङ्गे चापरः कार्यों दिवा चाप्रतिलेखिते । ।58 ।। व्युत्सृष्टे निशि मूत्रादौ वासरे शयनेपि च । क्रोधे च दीर्घे भीते च सुरभिद्रव्यसेवने । । 59 ।। अशने चाऽऽसवादीनां कालातिक्रममादिशेत् । ज्ञातिबन्धनभेदार्थे निवासात्खजनालये । । 60 ।। निस्नेहः शेषलोकानामालये च विलम्बकः । एवं च तपआचारे प्रायश्चित्तं विनिर्दिशेत् । 161 ।। ' ( आचारदिनकर, भा. 2, पृ. 246 ) आचारदिनकर के अनुसार तप नहीं करने पर या उसका भंग होने पर जघन्यतः पुरिमड्ढ, मध्यमतः आयंबिल एवं उत्कृष्टतः उपवास का प्रायश्चित्त आता है। • दिन में प्रतिलेखन किए बिना कार्य करने पर, पूर्व में अप्रतिलेखित भूमि पर मल-मूत्र आदि विसर्जित करने पर और दिन में शयन करने पर उपवास का प्रायश्चित्त आता है। • दीर्घ समय तक क्रोधित या भयभीत रहने पर, सुगन्धित पदार्थों का सेवन करने पर तथा मद्यादि का सेवन करने पर पुरिमड्ढ का प्रायश्चित्त आता है। यहाँ उपरोक्त कुछ दोष तपाचार से सम्बन्धित प्रतीत नहीं होते हैं। आचार्य वर्धमानसूरि ने अप्रतिलेखना आदि दोषों को किन अपेक्षाओं से तपाचार में अन्तर्भूत किया है यह ज्ञानीगम्य है। लघुजीतकल्प के अनुसार अथो तपोतिचारस्य प्रायश्चित्तमुदीर्यते । यत्तपो भज्यते तत्र तत्तपः पुनरिष्यते।।49।। ग्रन्थ्यादिनियमादीनां निर्गमेऽष्टोत्तरं शतम् । मन्त्रं जपेदिदं प्रोक्तं प्रायश्चित्तं तपोविधौ । 150 ।। प्रत्याख्यानस्य भङ्गे च कदाचित्स्मृत्यभावतः। तद्दिने न त्यजेत्तच्च प्रत्याख्यानं समाहितः ।। 51।। विचिन्त्य भग्नो नियमः प्रायश्चित्तान्न शुद्ध्यति । अस्मृत्या चैव भग्नस्य शुद्धिः स्याद्गुरुवाक्यतः।।52।। सत्यां शक्तौ चेन्न किंचिज्ज्ञानाभ्यासस्तपोदमम् । वैयावृत्यं च शुश्रूषा संयमोपायमेव च । 153।। कुर्यात्तस्य विशुद्ध्यर्थं सुभोजनमुदाहृतम्। ( आचारदिनकर, भा. 2, पृ. 251 ) • जिस तप का भंग हुआ हो, प्रायश्चित्त के रूप में पुन: वही तप करना चाहिए। · गंठिसहियं आदि नियमों का भंग होने पर पूर्व में कही गई तप-विधि का तथा एक सौ आठ बार नमस्कार मन्त्र का जाप करें।
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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