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________________ आत्मीय नाद जैन दर्शन भाव प्रमुख दर्शन है। भावों के आधार पर जीव प्रगाढ़ कर्मों का बंधन करता है और अनंत गुणी निर्जरा भी। प्रायश्चित्त, कर्म निर्जरा का रामबाण उपाय है। आलोचना एवं प्रायश्चित्त के द्वारा विविध प्रकार के दुष्कर्मों से छुटकारा पाना संभव है। इस आराधना में स्वकृत अपराधों की निन्दा की जाती है और उन्हें स्वीकार कर बार-बार उस दुष्कृत्य के प्रति उत्पन्न ग्लान भाव एवं पश्चाताप के द्वारा कर्मों को हल्का किया जाता है। बारह प्रकार के मुख्य तपों में प्रायश्चित्त को आभ्यंतर तप माना है। प्रायश्चित्त की महत्ता को दर्शाते हुए अनेक गीतार्थ आचार्यों द्वारा प्रायश्चित्त के सन्दर्भ में विभिन्न ग्रन्थ लिखे गये हैं और उन्हीं के आधार पर जाने-अनजाने हुए छोटे-बड़े दोषों की आलोचना की जाती है। जैनागमवर्ती निशीथसूत्र तो मात्र प्रायश्चित्त विधि पर ही आधारित है। यदि यह क्रिया लोक लज्जा, अपयश आदि के भय से न की जाए तो गाढ़ कर्मों का बंध होता है। प्रायश्चित्त गरु के समक्ष ही ग्रहण किया जाता है परन्तु वर्तमान में लिखित रूप से प्रायश्चित्त लेने की प्रणाली भी देखी जाती है। परिस्थितिवश इस अपवाद मार्ग का सेवन किया जाए तो समझ में आता है परंतु यथासंभव गुरु के समक्ष ही दुष्कृत्यों का निवेदन करके प्रायश्चित्त लेना चाहिए। स्वाध्यायनिष्ठा साध्वी सौम्यगुणाजी ने इस कठिन विषय पर कार्य करके अपनी सूक्ष्मग्राही अतुल प्रज्ञा का परिचय दिया है। मूलत: आलोचना, प्रायश्चित्त आदि गीतार्थ मुनियों से ही ग्रहण करते हैं तथा उनके द्वारा भी परिस्थिति एवं तरतम भावों की सापेक्षता के आधार पर प्रायश्चित्त दिया जाता है। साध्वीजी ने गहन अध्ययन एवं विद्वद मुनि भगवन्तों के निर्देशानुसार इस विषय पर अपना कार्य प्रस्तुत किया है। इन्होंने श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित ग्रन्थों के अनुसार यह विधि जीत व्यवहार के आधार पर प्रस्तुत की है। मध्यम कोटि के साधकों में आत्म जागरूकता एवं पाप भीरूता उत्पन्न हो, इसी उद्देश्य से यह शोध कृति लोकार्पित की जा रही है। एक विनम्र अनुरोध है कि कोई भी स्वेच्छा से इस
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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