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________________ 108... प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण विधिमार्गप्रपागत सामाचारी के अनुसार किये जाते हैं तथा श्वेताम्बर मूर्तिपूजक की तपागच्छ आदि अन्य परम्पराएँ आचारदिनकर में कही गई सामाचारी को प्रमुखता देती हैं। ऐसे दोनों ही ग्रन्थ खरतरगच्छ के आचार्यों द्वारा विरचित हैं। जैन श्वेताम्बर की स्थानकवासी, तेरापंथी आदि परम्पराओं में प्रायश्चित्त दान का स्वरूप क्या है ? तत्सम्बन्धी स्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं हो पाई है। सम्भवतः जीतकल्पसूत्र, जीतकल्पभाष्य, जीतकल्पचूर्णि के अनुसार यह परम्परा प्रचलित होगी। यहाँ मुख्य रूप से यह ध्यान देने योग्य है कि जीतव्यवहार के अनुसार जो प्रायश्चित्त-विधि उपदर्शित की जा रही है वह सामान्य साधु-साध्वी एवं श्रावकश्राविकाओं में पापभीरुता के गुण को विकसित करने तथा अनावश्यक दोषों से बचने हेतु कही जायेगी। इसके पीछे कई गूढ़ प्रयोजन भी रहे हुए हैं, इसलिए प्रायश्चित्त विधि पढ़कर कोई भी अपने आप प्रायश्चित्त ग्रहण नहीं करें अन्यथा महापाप का भागी हो सकता है, क्योंकि प्रायश्चित्त दान का अधिकार सुविहित आचार्यों एवं गीतार्थ मुनियों को ही होता है। वे अपराधी के सूक्ष्मातिसूक्ष्म भूलों को भी भलीभाँति जानकर एवं उसकी पात्रता का निर्णय कर अल्पाधिक प्रायश्चित्त देते हैं। चूँकि प्रायश्चित्तदान से पूर्व कई बिन्दूओं पर विचार करना होता है जैसे कि एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा ज्ञात में हुई है या अज्ञात में, सूक्ष्म रूप से हुई है या बादर रूप से, परिस्थिति विशेष में हुई है या अनावश्यक, अपराधी तन्दुरुस्त है या कृशकायी, पापभीरु है या लोकभीरु इत्यादि? इस तरह का समग्र ज्ञान एवं अनुभव हासिल करने के पश्चात ही प्रायश्चित्त दिया जाता है। अपराधी की मनोवृत्ति के अनुसार कभी दोष अल्प होता है किन्तु प्रायश्चित्त अधिक दिया जाता है, कभी अपराध बड़ा होता है किन्तु दण्ड अल्प दिया जाता है । यह निर्णय योग्यता प्राप्त आचार्य ही कर सकते हैं इसलिए किसी भी स्थिति में गृहस्थ प्रायश्चित्त लेने-देने का अधिकारी नहीं हो सकता । विधिमार्गप्रपा के अनुसार प्रायश्चित्त विधि खरतरगच्छ की आचारनिष्ठ मुनि परम्परा में आचार्य जिनप्रभसूरि ने यह रचना वि.सं. 1363 में की लिखी थी। यह ग्रन्थ 3575 श्लोक परिमाण है। ‘विधिमार्ग’ खरतरगच्छ का ही पूर्व नाम है। इस ग्रन्थ में लगभग 41 विधिविधानों का निरूपण किया गया है। यह रचना मूलतः खरतरगच्छ की सामाचारी
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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