SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 94...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण संचय और विघ्नों का नाश होता है, कीर्ति फैलती है तथा स्वर्ग एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है।59 आलोचना के दोष ___आलोचना करते समय निम्नोक्त दस प्रकार के दोषों की संभावनाएँ स्वीकारी गई हैं - __ आकंपइत्ता अणुमाणइत्ता, जं दिटुं बायरं च सुहुमं वा । छण्णं सद्दाउलगं, बहुजण अव्वत्त तस्सेवी।। 1. आकम्पित 2. अनुमानित 3. दृष्ट 4. बादर 5. सूक्ष्म 6. छन्न 7. शब्दाकुलित 8. बहुजन 9. अव्यक्त और 10. तत्सेवी।60 आलोचना के दस दोषों की प्रतिपादक यह गाथा निशीथभाष्य चूर्णि में मिलती है और सामान्य पाठ भेद के साथ दिगम्बर के मूलाचार शीलगुणाधिकार में एवं भगवतीआराधना में मूल गाथा के रूप में निबद्ध तथा अन्य ग्रन्थों में उद्धृत पाई जाती है। दोषों के अर्थ में कहीं-कहीं मतान्तर है, जिसका स्पष्टीकरण श्वेताम्बर व्याख्या (i) में और दिगम्बर व्याख्या (ii) में इस प्रकार है 1. आकम्प्य दोष- (i) आलोचनार्ह का वैयावृत्य आदि करके उनका अनुग्रह प्राप्तकर आलोचना करना अथवा गुरु को उपकरण आदि प्रदान करने से वे मुझे लघु प्रायश्चित्त देंगे, ऐसा विचार कर उपकरण दान के बाद आलोचना करना आकम्प्य दोष है। (ii) कांपते हुए आलोचना करना, जिससे गुरु अल्प प्रायश्चित्त दे। _2. अनुमान्य दोष- (i) 'ये आचार्य मृदुदंड देंगे'- ऐसा सोचकर उनके पास आलोचना करना अथवा 'मैं दुर्बल हूँ, अत: मुझे कम प्रायश्चित्त दें' ऐसा अनुनय कर आलोचना करना अनुमान्य दोष है। (ii) शारीरिक शक्ति का अनुमान लगाकर तदनुसार दोषों का प्रकाशन करना, जिससे गुरु अधिक प्रायश्चित्त न दें। 3. यदृष्ट दोष- (i) गुरु आदि के द्वारा जो दोष देख लिया गया है उसी की आलोचना करना, अन्य अदृष्ट दोषों का कथन नहीं करना यदृष्ट दोष है। (ii) दूसरों के द्वारा अदृष्ट दोषों को छिपाकर दृष्ट दोष की ही आलोचना करना। 4. बादर दोष- केवल स्थूल या बड़े दोषों की आलोचना करना बादर दोष है।
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy