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________________ आलोचना क्या, क्यों और कब ?... 67 1. विहार आलोचना - निशीथभाष्य के अनुसार विहार आलोचना के दो प्रकार हैं- ओघ और विभाग | 15 इस विषयक सामान्य रूप से संक्षिप्त आलोचना करना ओघ विहार आलोचना है। विहार सम्बन्धी क्रम पूर्वक विस्तृत आलोचना करना विभाग आलोचना है। 2. उपसम्पदा आलोचना - उपसम्पदार्थ उपस्थित हुआ मुनि विहार आलोचना की तरह पहले मूलगुणों के अतिचारों की, फिर उत्तरगुणों के अतिचारों की आलोचना करे। तत्पश्चात उपसम्पद्यमान मुनि अन्य गच्छवासी साधुओं को वंदन पूर्वक निवेदन करे कि आपने मेरी आलोचना सुनी, अब आप मेरी सारणा-वारणा करें। तब वे मुनिजन भी कहते हैं कि- आप भी हमारी सारणा वारणा करियेगा। इस वर्णन से बोध होता है कि उपसम्पदा इच्छुक मुनि जिस गच्छाचार्य की निश्रा में उपसम्पदा ग्रहण करना चाहता है, उसके द्वारा सर्वप्रथम आलोचना की जाती है उसके बाद ही आचार्य उसे अपने समुदाय में सम्मिलित करते हैं। 3. अपराध आलोचना - यह आलोचना भी पूर्ववत ओघ और पद विभाग से दो प्रकार की है। इसमें ओघ आलोचना एक दिन की और विभाग आलोचना एक दिन से लेकर अनेक दिनों की हो सकती है। आलोचना किसके समक्ष करें? व्यवहारसूत्र के अनुसार जहाँ तक सम्भव हो, निम्न क्रम से आलोचना करनी चाहिए, व्युत्क्रम से करने पर व्यवहारभाष्य के मत में चतुर्लघु और अगीतार्थ के पास आलोचना करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। 16 आलोचना इच्छुक सर्वप्रथम अपने आचार्य या उपाध्याय के पास आलोचना करे। यदि किसी कारण से आचार्य - उपाध्याय का योग सम्भव न हो अर्थात वे रुग्ण हों या दूर हों एवं स्वयं की आयु अल्प होतो बहुश्रुत गीतार्थ साम्भोगिक ( समान सामाचारी वाले) साधु के समक्ष आलोचना करे। यदि बहुश्रुती साम्भोगिक साधु का योग न मिले तो उसके अभाव में बहुश्रुत - गीतार्थ अन्य साम्भोगिक (असमान सामाचारी वाले) साधु के समक्ष आलोचना करे । यदि आचार सम्पन्न असाम्भोगिक साधु भी न मिले तो बहुश्रुत आदि गुणों से युक्त समानलिंग वाले मुनि के पास आलोचना करे। यहाँ समानलिंग कहने का
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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