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________________ 52... प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण 1. प्रायश्चित्त से प्रमाद जनित दोषों का निराकरण होता है 2. आत्मभावों की प्रसन्नता बढ़ती है 3. अपराधी या दोष प्रतिसेवी आत्मा शल्य रहित होती है 4. सामुदायिक या शासनबद्ध अव्यवस्था का निवारण होता है 5. आचार मर्यादा का पालन होता है 6. संयम परिपालन में दृढ़ता आती है 7. जिनवाणी की आराधना होती है। इस प्रकार प्रायश्चित्त अनेक सन्दर्भों में उपादेय सिद्ध होता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने जैन दण्ड की उपादेयता पर विमर्श करते हुए लिखा है कि प्रायश्चित्त एक शुभ भाव धारा है, शुभ भाव से अशुभकर्म का नाश होता है। इस क्रम में शुभ भाव पर बल देते हुए यह भी कहा गया है कि सामान्य रूप से किया गया शुभ भाव सम्पूर्ण कर्मों का नाश करने में समर्थ नहीं है, पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा के लिए प्रायश्चित्त स्वरूप जितना शुभ भाव अपेक्षित है उसे विशिष्ट शुभ भाव कहा है। इस प्रकार के विशिष्ट शुभ भाव उत्पन्न करने के तीन कारण हैं- अप्रमत्तता, छोटे-बड़े अतिचारों का स्मरण और संसार परिभ्रमण का अत्यन्त भय | 10 आचार्य हरिभद्रसूरि यह भी कहते हैं कि विशिष्ट शुभ भाव के द्वारा अशुभ भाव से बंधे हुए कर्मों के अनुबन्ध का विच्छेद होता है, शुभ भाव से अपूर्वकरण नामक आठवाँ गुणस्थान प्राप्त होता है और कर्मों की निर्जरा से उपशम श्रेणी, फिर क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर जीव अन्त में अनुत्तर सुख रूप निर्वाण को प्राप्त करता है। 11 किसी प्राचीन ग्रन्थ में इसका मूल्य रेखांकित करते हुए कहा गया है कि जंबुदीवे जे हुंति पव्वया, ते चेव हुंति हेमस्स । दिज्जति सत्त खित्ते, न छुट्टए दिवसपच्छित्तं । जंबूदीवे जा हुज्ज वालुआ, ताउ हुंति रयणाइ । दिज्जति सत्त खित्ते, न छुट्टए दिवस पच्छित्तं ।। इस जंबूद्वीप में मेरु आदि जितने पर्वत हैं वे सभी स्वर्ण के बन जायें तथा जंबूद्वीप में जितनी रेत है वह सब रत्नमय बन जाये। फिर उतने स्वर्ण और रत्नों का सात क्षेत्रों में दान करें उससे जीव उतना शुद्ध या पाप मुक्त नहीं होता, जितना कि भावपूर्वक आलोचना करके प्रायश्चित्त वहन कर शुद्ध बनता है । इसी क्रम में भाव आलोचना का महत्त्व दर्शाते हुए बताया गया है कि
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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