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________________ तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य...27 दीर्घ तप को प्रायोगिक रूप से कर पाये जबकि यहाँ उत्कृष्ट छह मास तप का तात्पर्य निर्जल तप से है। प्रभु महावीर ने चतुर्विध आहार के त्यागपूर्वक छह माह का उपवास किया था। इस अवसर्पिणी कालखण्ड के पांचवें आरे में उससे बढ़कर कोई तप कर ही नहीं सकता, अन्यथा शाश्वत नियमों एवं तीर्थङ्कर शक्ति का लंघन हो जायेगा। ___(ii) यावत्कथिक अनशन तप- अनशन का दूसरा भेद यावत्कालिक है। यह यावत्कालिक अनशन अपने नाम के अनुसार जीवन पर्यन्त के लिए स्वीकार किया जाता है। इसका प्रचलित नाम संथारा है। संथारा भी दो तरह से ग्रहण किया जाता है। आगार सहित और आगार रहित। शास्त्रीय भाषा में इन्हें भवचरिम सागार प्रत्याख्यान और भवचरिम निरागार प्रत्याख्यान कहते हैं। शास्त्रों में यावत्कथिक अनशन तप की विस्तृत चर्चा प्राप्त होती है। यहाँ सामान्य रूप से इतना ही कहा जाता है कि आगम नियमानुसार संथारा करने वाला साधक अनशन करने से पूर्व विविध प्रकार की तपसाधना करके शरीर एवं कर्म दोनों को क्षीण करता है और वही संलेखना कहलाता है। संलेखना में अनशन तप पूर्वक शरीर के साथ-साथ कषाय आदि अशुभ प्रवृत्तियों को भी शिथिल कर दिया जाता है। संलेखना संथारे की पूर्व भूमिका है। जैन आगमों में यावत्कालिक अनशन मुख्य रूप से दो प्रकार का बतलाया गया है - 1. पादोपगमन अनशन और 2. भक्त प्रत्याख्यान अनशन। उत्तराध्ययनसूत्र में भिन्न अपेक्षा से निम्न दो भेद बताये हैं- 1. सविचार और 2. अविचार।10 जिस अनशन तप में शरीर की चेष्टाएँ जैसे- हिलना, चलना, भ्रमण करना कायिक व्यापार प्रवर्तित रहते हैं, वह सविचार अनशन है और जिसमें शरीर की समस्त क्रियाएँ बंध होकर देह बिल्कुल स्थिर-निश्चेष्ट हो जाता है वह अविचार अनशन है। आचारांगसूत्र में यावत्कथिक अनशन के तीन प्रकार बतलाये गये हैं- 1. भक्तपरिज्ञा 2. इंगिनीमरण और 3. पादोपगमन।11 लाभ- कर्म निर्जरा की दृष्टि से अनशन का अत्यधिक महत्त्व है। भगवतीसूत्र के अनुसार ज्ञातव्य है कि एक साधक ने भगवान महावीर से प्रश्न किया कि एक उपवास करने से कितने कर्म नष्ट होते हैं ? भगवान ने समाधान देते हुए कहा - श्रमण एक उपवास के द्वारा उतने कर्म खपा लेता है जितने कर्म नारकी जीव हजारों वर्षों तक अपार कष्ट सहन करके भी नहीं खपा सकता। इस
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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