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________________ तप का स्वरूप एवं परिभाषाएँ...15 20. तपस्या में क्षमाभाव रहना अत्यावश्यक है, क्योंकि क्षमायुक्त किया गया तप ही कर्म निर्जरा का कारण बनता है। 21. जिनालय में बतलाई संख्या के अक्षत से स्वस्तिक बनाकर उस पर यथाशक्ति फल, नैवेद्य और रुपया चढ़ाना चाहिए। उपाध्याय यशोविजयजी महाराज ने उपर्युक्त नियम-विधि का समर्थन करते हुए लिखा है कि जिस तप में ब्रह्मचर्य का पालन हो, जिनेश्वर परमात्मा की पूजा-भक्ति हो, कषायों का क्षय होता हो और अनुबन्ध सहित जिन आज्ञा प्रवर्तित हो, वह तप शुद्ध माना जाता है।44 22. अनागाढ़ तप- जिन तपों को बीच में छोड़ा जा सकता है और यथाशक्ति समय का लंघन करते हुए पूर्ण किया जा सकता है, वे अनागाढ़ कहलाते हैं। आगाढ़ तप-जिन तपों को लगातार श्रेणीबद्ध किया जाए और जिन्हें मध्य में छोड़ नहीं सकते, फिर भी परिस्थितिवश कदाच अधूरा छोड़ना पड़े या भूलवश कोई तिथि छूट जाये तो उस तप को पुन: से प्रारम्भ करना होता है, वे आगाढ़ कहलाते हैं। सर्व तपस्या ग्रहण (प्रारम्भ) करने की विधि प्रचलित परम्परानुसार तप करने का इच्छुक व्यक्ति शुभ दिन में पवित्र वस्त्र धारण कर गुरु के समीप जायें। फिर गुरु महाराज को विधिवत वन्दन कर ज्ञान पूजा करें। तदनन्तर जिस तप का निश्चय किया हो उसे गुरु के मुखारविन्द से निम्न प्रकार ग्रहण करें • सर्वप्रथम चौकी या पट्टे पर स्वस्तिक, रत्नत्रय की तीन ढेरी एवं सिद्धशिला के प्रतीक रूप में अर्धचन्द्र बनायें। सिद्धशिला पर फल, स्वस्तिक के ऊपर मिठाई और बीच में नारियल एवं सवा रुपया चढ़ायें। • उसके बाद आसन बिछाकर चरवला और मुखवस्त्रिका को हाथ में ग्रहण करें। • फिर इरियावहि०, तस्सउत्तरी०, अन्नत्थसूत्र बोलकर एक लोगस्स अथवा चार नवकार मन्त्र का स्मरण करें। कायोत्सर्ग पूर्णकर प्रकट में लोगस्ससूत्र कहें। . फिर तप प्रारम्भ करने हेतु उत्कटासन मुद्रा में नीचे बैठकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके द्वादशावर्त्तवन्दन करें। • फिर स्थापनाचार्य जी के समक्ष एक खमासमण (पंचांग-प्रणिपात) पूर्वक कहें- "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! अमुक तव गहणत्यं चेइयं वंदावेह।" फिर ‘इच्छं' कहें।
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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