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________________ तपोयोग का ऐतिहासिक अनुशीलन एवं तुलनात्मक अध्ययन... 223 सञ्चित कर्म विनष्ट होते हैं तथा तपश्चरण राग-द्वेष जन्य पाप कर्मों के बन्धन को क्षीण करने का मार्ग है। जैन-साधना में तप के बाह्य और आभ्यन्तर ऐसे दो भेद किये गये हैं । पुनः प्रत्येक के छह-छह भेद भी बताये गये हैं। इस सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन कर चुके हैं। हिन्दू - साधना में गीताकार ने तप के तीन प्रकार प्रस्तुत किये हैं 1. शारीरिक 2. वाचिक और 3. मानसिक । गीताकार की दृष्टि से देव, द्विज, गुरुजन और ज्ञानीजनों का पूजन - सत्कार एवं सेवा करना, शरीर की शुद्धि एवं आचरण की पवित्रता रखना, ब्रह्मचर्य और अहिंसा का पालन करना शारीरिक तप है। हितकारी, प्रिय और यथार्थ सम्भाषण करना तथा स्वाध्याय एवं अध्ययन में रहना वाचिक तप है। मन की प्रसन्नता, शान्त भाव, मौन, मनोनिग्रह और भाव विशुद्धि मानसिक तप है। तप की शुद्धता एवं सार्थकता की दृष्टि से गीता में निम्न तीन विभाग भी किये गये हैं 6_ - 1. सात्त्विक तप 2. राजस तप और 3. तामस तप। उपरोक्त तीनों प्रकारों का तप श्रद्धा पूर्वक फल की आकांक्षा से रहित निष्काम भाव से किया जाता है, तब वह सात्विक तप कहा जाता है। जब यही तप सत्कार, मान-प्रतिष्ठा अर्जन या लोक प्रदर्शन के लिए पाखण्ड पूर्वक किया जाता है तो वह राजस तप कहा जाता है । जिस तप में मूढ़ता पूर्वक हठ से स्वयं को भी कष्ट दिया जाता है, दूसरे को भी कष्ट दिया जाता है तथा दूसरे का अनिष्ट करने के उद्देश्य से ही किया जाता है वह तामस तप कहलाता है। वर्गीकरण की दृष्टि से हिन्दू और जैन विचारणा में प्रमुख अन्तर यह है कि गीता - अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य एवं इन्द्रिय निग्रह आदि को भी तप की कोटि में मानती है, जबकि जैन विचारणा इन्हें पाँच महाव्रतों एवं दस यति धर्मों के अन्तर्गत स्वीकार करती हैं। इसी प्रकार गीता में जैन धर्म के द्वारा मान्य छह बाह्य तपों पर विशेष विचार नहीं किया गया है। जैन मत में स्वीकृत आभ्यन्तर तपों में केवल स्वाध्याय को ही वहाँ तप रूप में माना गया है। ध्यान और कायोत्सर्ग को योग के रूप में, वैयावृत्य को लोकसंग्रह, विनय को गुण रूप तथा प्रायश्चित्त को शरणागति स्वरूप स्वीकारा गया है। वैसे जैन - परम्परा का तप वर्गीकरण हिन्दू-साधना में किसी न किसी रूप में अवश्य स्वीकृत रहा है।
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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