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________________ 136...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक वहाँ से तप क्रम को घटाते-घटाते जो प्रत्याख्यान करना हो वहाँ चिन्तन को रोक कर मन में उस तप का निश्चय करके कायोत्सर्ग पूर्ण करना चाहिए। जो गृहस्थ रात्रिक प्रतिक्रमण नहीं कर सकते हैं वे गुरु को वन्दन करते समय उनके मुख से तप का प्रत्याख्यान ग्रहण करें। कदाच वन्दन के समय भी प्रत्याख्यान न ले सकें तो व्याख्यान सुनने के बाद अवश्य लें। कहने का सार यही है कि गृहस्थ को प्रतिदिन किसी न किसी प्रकार का तप अवश्य करना चाहिए। यही कारण है कि गृहस्थ के नित्य कर्मों में उसे स्थान दिया गया है। तपागच्छ-परम्परा में श्रावक के दैनिक स्वाध्याय का एक पाठ है – “मन्त्रह जिणाणमाणं।" इस पाठ में स्पष्ट कहा गया है कि “पव्वेसु पोसहवयं दानं शीलं तवो अ भावो अ"- पर्व के दिन गृहस्थ को पौषधव्रत करना चाहिए तथा शेष दिनों में दान, शील, तप और भाव की आराधना करनी चाहिए। संक्षेप में कहा जा सकता है कि पूर्वाचार्यों ने गृहस्थ धर्म के उत्तरोत्तर विकास हेतु तप आचार को अपरिहार्य माना है, क्योंकि इससे द्रव्यत: शरीर एवं भावत: चैतसिक मन दोनों निर्मल और स्वस्थ बनते हैं। भौतिक सुख-समृद्धियों की दृष्टि से- तप का आचरण करने से न केवल पाप कर्म ही क्षीण होते हैं अपितु भौतिक सुख-समृद्धियाँ भी प्राप्त होती हैं। संसार में भौतिक समृद्धि की दृष्टि से चक्रवर्ती का पद सबसे श्रेष्ठ और सबसे दुर्लभ माना गया है। वह चक्रवर्ती पद तपश्चरण के द्वारा ही सम्प्राप्त होता है। कथानुयोग कहता है कि भरत चक्रवर्ती ने अपने पूर्व जन्मों में हजारों वर्ष तक तपस्या, सेवा और स्वाध्याय तप की आराधना की थी उसी के प्रभाव से वे चक्रवर्ती पद प्राप्त कर सके। सनत्कुमार चक्रवर्ती का जीवन चरित्र पढ़ते हैं तो ज्ञात होता है कि उन्होंने भी हजारों वर्ष तक तपश्चर्याएँ की, उसके बाद ही चक्रवर्ती पद पर आरूढ़ हो सके। कोई भी चक्रवर्ती, चक्रवर्ती के भव में जन्म लेने के साथ ही चक्रवर्ती नहीं बन जाता, हर एक भौतिक उपलब्धि के लिए उन्हें तप करना होता है। जैन-परम्परा में चक्रवर्ती के तेरह तेले प्रसिद्ध हैं। वे अपने कार्यों को सिद्ध करने हेतु समय-समय पर तपस्या करते रहते हैं। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र में वर्णन आता है कि इस अवसर्पिणी काल के प्रथम चक्रवर्ती भरत की आयुधशाला में जब सर्वप्रथम चक्ररत्न प्रकट हुआ (जिसके बल पर वे चक्रवर्ती कहलाये) तब आयुधशाला के आरक्षक ने महाराज भरत को
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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